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एक मियार है दुश्मनी का दोस्तों ने मुरव्वत न सीखी दुश्मनों को अदावत तो आये
तुम तो गलत दोस्त चुन लेते हो, सदगुरु ठीक दुश्मन भी चुनते हैं। लड़ने का बड़ा मजा है। लेकिन खयाल रखना, अदावत की भी एक तहजीब है, एक संस्कृति है । अदावत सिर्फ अदावत ही नहीं है।
महावीर और बुद्ध के बीच जो संघर्ष हुआ उससे सदियां लाभान्वित हुई हैं। अगर महावीर चुप रहे होते, बुद्ध का खंडन न किया होता, बुद्ध अगर चुप रहे होते, महावीर का खंडन न किया होता तो बुद्ध और महावीर के वचनों में जो निखार है, जो पैनापन है वह नहीं हो सकता था। वह धार कहां से आती? संघर्ष धार लाता है।
जैसे तलवार पर धार रखनी हो तो चट्टान पर घिसनी पड़ती है। ऐसा जब बुद्ध और महावीर जैसे दो कार टकरा जाते हैं तो दोनों में धार आती है। यह अदावत अदावत नहीं, यह किसी लंबे अर्थों में बड़ी गहरी मैत्री है। और यह अदावत किसी के अहित में नहीं। तुम शब्दों में मत पड़ जाना। तुम यह मत सोच लेना कि दोस्ती ही सदा शुभ होती है। तुम्हारी तो दोस्ती भी क्या खाक शुभ होती है ! तुम्हारी तो दोस्ती में से भी अशुभ ही निकलता है। तुम्हारी दोस्ती में से भी शत्रुता ही तो निकलती है, और निकलता है ? ऐसी भी अदावत होती है कि दोस्ती निकले।
इल्मो - तहजीब तारीखो - मंतब लोग सोचेंगे इन मसलों पर जिंदगी के मुसक्कल कदे में कोई अहदे - फरागत तो आये
ज्ञान और सभ्यताः इल्म - औ - तहजीब; तारीख - औ- मंतब: इतिहास और दर्शन; लोग सोचेंगे इन मसलों पर। लोग सोचते रहे हैं, सोचते रहेंगे।
जिंदगी के मुसक्कल कदे में
कोई अहदे - फरागत तो आये
यह जो जिंदगी का बंधा हुआ घर है, यह जो कारागृह जैसी हो गई जिंदगी... ।
जिंदगी के मुसक्कल कदे में
कोई अहदे-फरागत तो आये
लेकिन कुछ अवकाश मिले इस श्रम से भरी जिंदगी में । कोई खाली रिक्त स्थान आये, जहां थोड़ी देर को हम जिंदगी के ऊपर उठ सकें; जहां थोड़ी देर हम जिंदगी के पार देख सकें। कोई झरोखा खुले ।
ये सदगुरु सोच-विचारवाले लोग नहीं हैं। ये तो जिंदगी में थोड़े से झरोखे खोलते हैं। और जब तुम्हें किसी को अपने झरोखे पर बुलाना हो तो सिवाय इसके कोई उपाय नहीं कि वह कहे कि सब झरोखे व्यर्थ हैं। तुम कहां अटके हो ? यह खुल गया झरोखा |
और खयाल रखना, यह करना ही पड़ेगा। क्योंकि लोग झरोखों पर अटके हैं। हो सकता है, झरोखे बंद हो चुके हों, समय ने झरोखे बंद कर दिये हों। हो सकता है, झरोखों पर धूल की पर्तें जम
सदगुरुओं के अनूठे ढंग
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