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पहला प्रश्नः कृष्णमूर्ति परम ज्ञानी होकर भी अन्य सदगुरुओं के कार्यों की निंदा, आलोचना क्यों करते हैं?
ज
ब तक परम ज्ञानी न हो जाओ, न समझ सकोगे। अज्ञान के तल से जो निंदा और आलोचना मालूम होती है,
ज्ञान के तल से वह केवल करुणा है। तुम भटक न जाओ इसलिए; तुम गलत में न पड़ जाओ इसलिए; जब श्रेष्ठ उपलब्ध हो तो तुम निकृष्ट न चुन लो इसलिए ।
फिर खयाल रहे कि सत्य की अनंत अभिव्यक्तियां हैं। और सत्य की प्रत्येक अभिव्यक्ति 'मैं सही हूं', इस भाव के साथ ही पैदा होती है। सत्य स्वतः प्रमाण है। इसलिए जब भी सत्य का अनुभव होता है तो जो भी अभिव्यक्ति सत्य को मिलती है, वह इतनी प्रगाढ़ता से मिलती है कि इससे अतिरिक्त सब गलत है, यह भाव उसमें सम्मिलित होता है।
बुद्ध ने आलोचना की है महावीर की। महावीर ने आलोचना की है मखली गोशाल की। कुछ कृष्णमूर्ति नया नहीं करते हैं। लाओत्से ने आलोचना की है कनफ्यूशियस की। और क्राइस्ट ने तो इतनी ज्यादा आलोचना की कि सूली बिना चढ़ाये लोग रह न सके।
लेकिन तुम्हारे तल पर कठिनाई भी मेरे समझ में आती है। तुम आलोचना ही जानते हो, निंदा ही जानते हो। तो जब तुम कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति को कोई वक्तव्य देते देखते हो तो तुम अपना रंग उस पर चढ़ा देते हो। तुम्हें ऐसा लगता है कि सदगुरु को तो आलोचना नहीं करनी चाहिए। लेकिन कभी कोई सदगुरु हुआ है जिसने आलोचना न की हो ?
जिन्होंने नहीं की है वे न तो गुरु थे - सदगुरु तो दूर, वे राजनैतिक नेता रहे होंगे। राजनैतिक नेता हिसाब से चलता है। वह वही कहता है जो तुम सुनना चाहते हो । उसे सत्य से कोई प्रयोजन नहीं है, उसे तुम पर अधिकार करने से प्रयोजन है। तुम जिसके साथ हो, वह उसको भी ठीक कहता है। इसका कोई उसके मन में मूल्य ही नहीं है कि वह जो कह रहा है, वह ठीक है या गलत। राजनेता अक्सर समन्वय की बात करता हुआ मिलेगा। सदगुरु अक्सर प्रगाढ़ रूप से जो कह रहे हैं, उसके लिए प्रमाण जुटाते मिलेंगे और उससे अन्यथा को गलत कहते मिलेंगे।
लेकिन समन्वय का तुम्हारे मन में बड़ा आग्रह पैदा हो गया है। ऐसी भ्रांत धारणा पैदा हो गई है कि जो व्यक्ति आलोचना करता है वह ज्ञानी नहीं। राजनीतिज्ञों ने समन्वय के नाम पर काफी प्रचार