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दबा ली पूंछ और बैठ गए। नहीं, ज्ञानी का संतोष ऐसा संतोष नहीं।
संतुष्टोऽपि न संतुष्टः। संतुष्ट होकर भी इस अर्थ में संतुष्ट नहीं।
और एक अर्थः एक तो संतोष है, जो असंतोष के विपरीत है। और एक ऐसा संतोष है जो असंतोष के विपरीत नहीं। एक ऐसा संतोष है, जो असंतोष से विपरीत है इस अर्थ में कि फिर तुम्हें जरा भी असंतुष्ट नहीं होने देता। लेकिन तब तो गति मर जायेगी।
समझो। लोग तुम्हें समझाते हैं, संतुष्ट हो जाओ। जैसे हो, जहां हो, संतुष्ट हो जाओ। यह बात अधूरी है। ज्ञानियों ने कहा है, बाहर से संतुष्ट हो जाओ, भीतर से संतुष्ट मत हो जाना। धन, पद, मर्यादा, इससे हो जाओ संतुष्ट। इसमें कुछ सार भी नहीं है। रुक गए तो कुछ खोया नहीं, क्योंकि चलनेवाले कुछ पाते नहीं। ठहर गए तो कुछ जाता नहीं, क्योंकि जो दौड़ते रहे वे कुछ पाते नहीं। इसमें संतुष्ट हो जाओ। लेकिन भीतर संतुष्ट मत हो जाना। भीतर तो और-और अनंत यात्रा है। शुरू तो है वहां, अंत नहीं है वहां। अनंत है यात्रा। भीतर तो और-और खोजना है।
तो एक दिव्य असंतोष की आग भीतर जलती रहे। राजी मत हो जाना, क्योंकि परमात्मा इतना बड़ा है, तुम छोटा-मोटा टुकड़ा लेकर बैठ मत जाना। तुम तो बढ़ते ही जाना जब तक कि पूरे परमात्मा को न पा लो। और पूरे को कभी कोई पाता है ? पाता जाता है, पाता जाता है, पूरे को कोई कभी नहीं पाता। यह मंजिल ऐसी नहीं है कि कभी चुक जाये। और यह सौभाग्य है कि मंजिल चुकती नहीं। नहीं तो फिर क्या करते? मंजिल चुक जाती, पा लिया पूरा परमात्मा, बंद कर दिया तिजोड़ी में, बैठ गए। फिर क्या करते? नहीं. यह चकती नहीं। जितना तम पाओगे. उतना ही पाने को शेष मालम पडेगा।
तो जीसस के वचन में एक वचन और जोड़ देना चाहिए। जीसस कहते हैं, जिनके पास है उसे मिलेगा; और मिलेगा। और जिसके पास नहीं है उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है। इसमें एक वचन और जोड़ देना चाहिए कि जिसके पास है उसे और मिलेगा। और जिसे और मिलेगा उसे और खोजना पड़ेगा। जो जितना पायेगा उतना ही पायेगा और पाने को शेष है।
परमात्मा कभी अशेष होता ही नहीं। सदा शेष है; और शेष है, और शेष है। उसका दूसरा कोई किनारा नहीं है। नाव छोड़ दी एक दफा सागर में तो सागर-और सागर-और सागर-विराट होता चला जाता है। जितनी तुम्हारी हिम्मत बढ़ती, जितनी तुम्हारी पात्रता बढ़ती, जितनी तुम्हारी योग्यता अर्जित होती उतना ही सागर बड़ा होता चला जाता।।
संतुष्टोऽपि न संतुष्टः—इसलिए ज्ञानी संतुष्ट होकर भी संतुष्ट कहां? खिन्नोऽपि न च खिद्यते-और खिन्न होकर भी खिन्न नहीं।
कभी-कभी तुम ज्ञानी को खिन्न भी देखोगे, फिर भी वह खिन्न नहीं है। उसकी खिन्नता भी अदभुत है। कभी-कभी तुम उसे उदास भी देखोगे। उसकी उदासी तुम्हारी खुशियों से ज्यादा मूल्यवान है। क्योंकि वह अपने लिए कभी उदास नहीं होता, वह सदा औरों के लिए उदास होता है। इसलिए कहा है, 'खिन्नोऽपि न च खिद्यते।'
बुद्ध के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मैं दुनिया की कैसे सेवा करूं, आप मुझे समझा दें। और कहते हैं, बुद्ध ने आंख बंद कर ली और उनकी आंख से एक आंसू टपका। ऐसा बहुत
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5