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द्रष्टा सत्य और दृश्य झूठ।
दो दृश्यों में तय नहीं करना है कि क्या सच और क्या झूठ, द्रष्टा और दृश्य में तय करना है। द्रष्टा का हमें कुछ पता नहीं है।
अष्टावक्र का यह पूरा संदेश द्रष्टा की खोज है। कैसे हम उसे खोज लें जो सबका देखने वाला है।
तुम अगर कभी परमात्मा को भी खोजते हो तो फिर एक दृश्य की भांति खोजने लगते हो। तुम कहते हो, संसार तो देख लिया झूठ, अब परमात्मा के दर्शन करने हैं। मगर दर्शन से तुम छूटते नहीं, दृश्य से तुम छूटते नहीं। धन देख लिया, अब परमात्मा को देखना है। प्रेम देख लिया, संसार देख लिया, संसार का फैलाव देख लिया, अब संसार के बनानेवाले को देखना है; मगर देखना है अब भी। जब तक देखना है तब तक तुम झूठ में ही रहोगे। तुम्हारी दूकानें झूठ हैं। तुम्हारे मंदिर भी झूठ हैं, तुम्हारे खाते-बही झूठ हैं, तुम्हारे शास्त्र भी झूठ।
जहां तक दृश्य पर नजर अटकी है वहां तक झूठ का फैलाव है। जिस दिन तुमने तय किया अब उसे देखें जिसने सब देखा, अब अपने को देखें, उस दिन तुम घर लौटे। उस दिन क्रांति घटी। उस दिन रूपांतरण हुआ। द्रष्टा की तरफ जो यात्रा है वही धर्म है।
ये सारे सूत्र द्रष्टा की तरफ ले जाने वाले सूत्र हैं। __ और उस बूढ़े वजीर ने राजा से ठीक ही कहा कि अब वे प्राचीन पुरुष न रहे, वे विरले लोग-चीन की कथा है इसलिए उसने लाओत्सु का नाम लिया, भारत की होती तो अष्टावक्र का नाम लेता। विरले हैं वे लोग और दुर्भाग्य से कभी-कभी होते हैं; मुश्किल से कभी होते हैं, जो जानते हैं कि क्या सत्य है और क्या सपना है। अष्टावक्र ऐसे विरले लोगों में एक हैं। एक-एक सूत्र को स्वर्ण का मानना। एक-एक सूत्र को हृदय में गहरे रखना, सम्हालकर रखना। इससे बहुमूल्य मनुष्य के चैतन्य में कभी घटा नहीं है।
पहला सूत्रः
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा। - तदा क्षीणा भवंन्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
'जब मनुष्य अपनी आत्मा के अकर्तापन और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी संपूर्ण चित्तवृत्तियां निश्चयपूर्वक नाश को प्राप्त होती हैं।'
दृश्य में हम उलझे क्यों हैं? दृश्य में हम उलझे हैं क्योंकि दृश्य में ही सुविधा है कर्ता के होने की, भोक्ता के होने की। जब तक हम कर्ता होना चाहते हैं तब तक हम द्रष्टा न हो सकेंगे। क्योंकि जो कर्ता होना चाहता है वह तो द्रष्टा हो ही नहीं सकता। वे आयाम विपरीत हैं। वे आयाम एक साथ नहीं रहते। अंधेरे और प्रकाश की भांति हैं। प्रकाश ले आए, अंधेरा चला गया। ऐसे ही जिस दिन साक्षी आएगा, कर्ता चला जाएगा। या कर्ता चला जाए तो साक्षी आ जाए। दोनों साथ नहीं होते।
और हमारा रस भोक्ता होने में है। दृश्य को हम देखना क्यों चाहते हैं? यह दृश्य की इतनी लीला में हम उलझते क्यों हैं? क्योंकि हमें लगता है, देखने में ही भोग है।
तुम देखो, संसार को देखने से तुम नहीं चुकते तो फिल्म देखने चले जाते हो। जानते हो भलीभांति कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है। नाकुछ के लिए तीन घंटे बैठे रहते हो। कुछ भी नहीं है पर्दे पर। भलीभांति
निराकार, निरामय साक्षित्व
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