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________________ हो जायेगा। फिर तुम एक ही खिड़की से क्यों देखोगे ? फिर कंजूसी क्या? फिर तुम सब खिड़कियां खोलोगे, फिर तुम सब द्वार खोलोगे । फिर तुम पूरब में ही क्यों अटके रहोगे ? फिर पश्चिम की खिड़की भी खोलोगे। फिर तुम पश्चिम में ही क्यों उलझे रहोगे ? फिर तुम दक्षिण की भी खिड़की खोलोगे । क्योंकि जब पूरब इतना सुंदर है तो पश्चिम भी होगा, तो दक्षिण भी होगा, तो उत्तर भी होगा। तब सब आयाम तुम खोलोगे। फिर एक दिन तो तुम कहोगे, इस घर के बाहर चलें । खिड़कियों से काम नहीं चलता। जब घर के भीतर से आकाश इतना सुंदर है तो ठीक आकाश के नीचे जब खड़े होंगे तब अपूर्व सौंदर्य की वर्षा होगी। उस दिन पूरा अस्तित्व तुम्हारा गुरु हो गया। मगर सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम्हें पहले एक खिड़की खोलनी पड़ेगी। तीसरा प्रश्न: आप कहते हैं कि जिस चीज में भी रस हो उसे पूरा भोग लेना चाहिए। लेकिन रस तो अंधा बनाता है। रस कैसे अंधा बनायेगा ? उपनिषद कहते हैं, परमात्मा का रूप रसः 'रसो वै सः ।' वह तो रसरूप है। रस कैसे अंधा बनायेगा ? नहीं, कुछ और बात होगी। तुम अंधे हो। तुम कहीं भी बहाना खोजते हो, किसने अंधा बना दिया। कोई अंधा नहीं बना रहा तुम्हें। तुम आंख बंद किये बैठे हो । न रस अंधा बना रहा है, न अंधा बना रहा है, न संसार अंधा बना रहा है। कोई अंधा नहीं बना रहा। कोई कैसे अंधा बनायेगा ? अंधे तुम हो, आंख बंद किये बैठे हो । 192 लेकिन यह मानने की हिम्मत भी तुममें नहीं है कि मैं आंख बंद किये बैठा हूं। तो तुम बहाने खोज रहे हो। तुम कहते हो क्या करें, कामवासना ने अंधा कर दिया है। क्या करें, धन की वासना ने अंधा कर दिया। क्या करें, यह संसार में उलझे हैं, इससे अंधे हुए जा रहे हैं। बात उल्टी है, तुम अंधे हो इसलिए संसार में उलझे हो । धन अंधा नहीं कर रहा है, तुम अंधे हो इसलिए धन को पकड़े बैठे हो । रस अंधा नहीं कर रहा है, रस तो तुम्हें अभी मिला ही कहां ? जरा पूछो फिर से अपने से, रस पाया है ? हां ऐसा दूर-दूर झलक दिखाई पड़ी है। कभी किसी सुंदर स्त्री में – दूर से; पास आकर तो विरस हो जाता है सब । अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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