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________________ 'मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि आलंबन के बिना नहीं रहती । मुक्त पुरुष की बुद्धि सदा निष्काम और निरालंब रहती है।' मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमंतरेण न विद्यते । 'मुमुक्षु की बुद्धि आलंबन के बिना नहीं रहती ।' मन बिना आलंबन के नहीं रहता । मन को कोई सहारा चाहिए। मन अपने बल खड़ा नहीं हो सकता। मन को उधार शक्ति चाहिए - किसी और की शक्ति । मन शोषक है। इसलिए जब तक तुम सहारे से जीयोगे, मन से जीयोगे । जिस दिन तुम बेसहारा जीयोगे उसी दिन तुम मन के बाहर हो जाओगे । और इस बात को खयाल में लेना कि मन इतना कुशल है, उसने मंदिर के भी सहारे बना लिये हैं। पूजा, पाठ, यज्ञ-हवन, पंडित, पुरोहित, शास्त्र । परमात्मा भी तुम्हारे लिए एक आलंबन है। उसके सहारे भी तुम मन को ही चलाते हो। तुम मन की कामनाओं के लिए परमात्मा का भी सहारा मांगते हो कि हे प्रभु! अब इस नये धंधे में काम लगा रहे हैं, खयाल रखना। शुभ मुहूर्त में लगाते हो, ज्योतिषी से पूछकर चलते हो कि प्रभु किस क्षण में सबसे ज्यादा आशीर्वाद बरसायेगा, उसी क्षण शुरू करें। मुहूर्त में करें। तुम परमात्मा का भी सहारा अपने ही लिए ले रहे हो । खयाल करो, जब तक तुम परमात्मा को सहारा बनाने की कोशिश कर रहे हो, तुम परमात्मा से दूर रहोगे । जिस दिन तुमने सब सहारे छोड़ दिये उस दिन परमात्मा तुम्हारा सहारा है। बेसहारा जो हो गया, परमात्मा उसका सहारा है । निर्बल के बलराम । जिसने सारी बल की दौड़ छोड़ दी, जिसने स्वीकार कर लिया कि मैं निर्बल हूं, असहाय हूं और कहीं कोई सहारा नहीं है। सब सहारे झूठे हैं और सब सहारे मन की कल्पनायें हैं। ऐसी असहाय अवस्था में जो खड़ा हो जाता है उसे इस अस्तित्व का सहारा मिल जाता है। 'मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि आलंबन के बिना नहीं रहती।' मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमंतरेण न विद्यते । निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा ।। 'लेकिन मुक्त पुरुष की बुद्धि सदा निष्काम और निरालंब है।' मुक्ति का अर्थ ही है, निरालंब हो जाना, निराधार हो जाना। मुक्ति का अर्थ ही है, अब मैं कोई सहारा न खोजूंगा। और जैसे ही सहारे हटने लगते हैं वैसे ही मन गिरने लगता है। इधर सहारे गये, उधर मन गया। मन सभी सहारों का जोड़ है, संचित रूप है । सारे सहारे हट जाते हैं, बस मन का तंबू गिर जाता है। मन तंबू के गिर जाने पर जो शेष रह जाता है, बिना किसी सहारे के जो शेष रह जाता है, वही है शाश्वत; वही है अमृत; वही है तुम्हारा सच्चिदानंद । वही है तुम्हारे भीतर छिपा हुआ परमात्मा, , विराट | परात्पर ब्रह्म तुम्हारे भीतर मौजूद है। ऐसा समझो कि तुम्हारा आंगन है, दीवाल उठा रखी है। दीवाल के कारण आकाश बड़ा छोटा हो गया आंगन में। दीवाल गिरा दो, आकाश विराट हो जाता है । सारा आकाश तुम्हारा हो जाता है। मन तो आंगन है। छोटी-छोटी दीवालें चुन ली हैं, उसके कारण आकाश बड़ा छोटा हो गया है। गिरा दो दीवालें । हटा दो दीवालें । तोड़ दो परिधि । गिरा दो परिभाषायें । तत्क्षण तुम्हारा आकाश विराट 180 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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