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नहीं है। जिन्होंने सोचा था त्रिमुखी है, त्रिमूर्ति है, वे भी खड़े रह जायेंगे। जिन्होंने कोई और रंग-ढंग सोचे थे, वे भी खड़े रह जायेंगे। क्योंकि सत्य जैसा है वैसा कभी कहा ही नहीं गया; कहा नहीं जा सकता। सत्य जैसा है वैसा किसी भी शास्त्र में लिखा नहीं है; लिखा नहीं जा सकता।
सत्य जैसा है वैसा तो जाना ही जाता है बस । गूंगे का गुड़ है। जो जान लेता है वह गूंगे की तरह रह जाता है। कहने की कोशिश भी करता है लेकिन फिर भी कह नहीं पाता । और जो-जो कहता है वह सभी कहने के कारण असत्य हो जाता है। सत्य को कहा नहीं कि असत्य हुआ नहीं। सत्य इतना विराट है, किन्हीं मुट्ठियों में नहीं बांधा जा सकता। और हमारी धारणाएं मुट्ठियां हैं। और हमारे शब्दजाल, सिद्धांत, शास्त्र मुट्ठियां हैं।
तो हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, ईश्वर को माननेवाले, ईश्वर को न माननेवाले, सभी जिगर थामकर रह जायेंगे, जब पर्दा उठेगा। तब पता चलेगा कि अरे, हम जो मानते रहे, वैसा तो कुछ भी नहीं है। और जैसा है वैसा तो हमारे स्वप्न में भी कभी नहीं उतरा था । जैसा है इसका तो हमें कभी
भी अनुमान न हुआ था।
और तब वे रोयेंगे भी। क्योंकि अब उन्हें पता चलेगा कि हमारी मान्यताओं ने हमें भटकाया, पहुंचाया नहीं। संप्रदायों ने भटकाया है तुम्हें सत्य से; पहुंचाया नहीं। लेकिन पता तो तभी चलेगा जब सत्य पर से पर्दा उठे। इसके पहले तो तुम एक नींद में हो, एक बेहोशी में चले जा रहे हो। इसके पहले तो तुम जो मानते हो, लगता है ठीक है। जब सत्य से तुम्हारी मान्यता की टकराहट होगी और तुम्हारी मान्यता कांच के टुकड़ों की तरह चूर-चूर हो जायेगी, तब तुम रोओगे कि कितने-कितने जन्मों तक मान्यतायें बांधकर रखीं, संजोकर रखीं। कितनी पूजा, कितनी अर्चना की, कितनी मालायें जपीं, सब व्यर्थ गईं। कितने चिल्लाये 'राम-राम,' कितना नहीं पुकारा 'अल्लाह अल्लाह !' और अब जो सामने खड़ा है, न अल्लाह है न राम ।
महात्मा गांधी के आश्रम में वे भजन गाते थे : अल्लाह ईश्वर तेरा नाम । न उसका अल्लाह नाम है और न ईश्वर उसका नाम है। उसका कोई नाम नहीं। जब पर्दा उठेगा तब तुम देखोगे, अनाम खड़ा है । न अल्लाह जैसा, न ईश्वर जैसा । न अरबी में लिखा है उसका नाम, न संस्कृत में; अनाम है। न शंकराचार्य की मान्यता जैसा है, न पोप की मान्यता जैसा। किसी की मान्यता जैसा नहीं है। आंख पर जब तक पर्दा पड़ा है तब तक माने रहो, जो मानना है । पर्दा उठते से ही सारी मान्यतायें टूट जायेंगी। सत्य जब नग्न प्रकट होता है तो तुम्हारी सारी धारणाओं को बिखेर जाता है।
ऐसा ही समझो... तुमने जो कहानी सुनी है, पांच अंधे एक हाथी को देखने गये थे। हाथी को छुआ भी; अंधे थे, देख तो सकते न थे, छू-छूकर पहचाना। जिसने पैर छुआ, उसने कहा कि अरे, खंभे की तरह मालूम होता है। उसने एक धारणा बनाई — अंधे की धारणाः खंभे की तरह मालूम होता। जिसने कान छुआ उसने कहा, सूपे की तरह मालूम होता । उसने भी एक धारणा बनाई।
ऐसे वे सभी धारणाएं बनाकर लौट आये। और उनमें बड़ा विवाद हुआ। वे पांचों अंधे बड़े दार्शनिक थे। सभी दार्शनिक अंधे हैं। उन्होंने बड़ा विवाद किया, अपनी-अपनी धारणा के लिए बड़े तर्क जुटाये । और बेचारे गलत भी न कहते थे, क्योंकि जैसा अंधा जान सकता था वैसा उन्होंने जाना था। और एक-दूसरे पर खूब हंसे भी । उन्होंने कहा, यह भी हद मजाक हो गई। मैं खुद देखकर आ
अपनी बानी प्रेम की बानी
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