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है। उसकी लकीर बन गई। उसी लकीर पर चलता रहता है। जरा तुम लकीर से हटे तो मन कहता है, इसमें मैं कुशल नहीं हूं। यह मैंने कभी किया नहीं है, अभ्यास नहीं है। यह तुम क्या करते हो ? और अब इतनी उम्र तो गुजर गई, थोड़े दिन और गुजार लो पुराने में ही रहकर, निश्चितता से। कहां असुरक्षा में जाते हो? इसलिए मन भी डरता है ।
मगर न सुनो तन की, न सुनो मन की। क्योंकि न तुम तन हो और न तुम मन हो । तुम चैतन्य हो । तुम साक्षी हो । यह जिसको पता चल रहा है कि शरीर कंप रहा है, वही हो तुम। शरीर का कंपन नहीं, जिसको बोध हो रहा है कि शरीर कंप रहा है, उस बोध में ही तुम्हारा होना है। जिसे पता चल रहा है कि मन चिंतित हो रहा है, दुविधा में पड़ रहा है : करूं न करूं ?
मन नहीं हो तुम। जो इन सबके पीछे खड़ा देख रहा है। तन का कंपना, मन की दुविधा, इन दोनों का जहां अंकन हो रहा है, उस साक्षीभाव में तुम्हारा होना है। और साक्षी बन गये, संन्यासी बन गये। संन्यासी बनकर करोगे क्या ? साक्षी ही तो बनोगे । संन्यास का अर्थ ही इतना है कि अब हम तोड़ते नाता तन से, मन से जोड़ते नाता उससे, जो दोनों के पार है।
डरो मत। हिम्मत करो। जिन्होंने हिम्मत की उन्होंने पाया है। जो डरे रहे वे किनारे पर ही अटके रहे। वे कभी गहरे सागर में न उतरे। और अगर मोतियों से वंचित रह गये तो कोई और जिम्मेवार नहीं ।
दूसरा प्रश्न :
किसी ने माला जपी किसी ने जाम लिया सहारा जो मिला जिसको उसी को थाम लिया और अजब हाल था हरसूं नकाब उठने पर
किसी ने दिल को किसी ने जिगर को थाम लिया भगवान, कृपा कर इस पर कुछ प्रकाश डालें ।
सत्य कैसा है, इसकी कोई कल्पना नहीं हो सकती। सत्य कैसा है, अनुभव के पूर्व इसकी कोई धारणा नहीं हो सकती । सत्य कैसा है ? किसी शब्द में कभी समाया नहीं और किसी चित्र में कभी आंका नहीं गया । सत्य कैसा है ? अपरिभाष्य है, अनिर्वचनीय है।
इसलिए जब सत्य पर पर्दा उठता है तो हिंदू भी रोयेगा, मुसलमान भी रोयेगा । कोई हृदय थाम लेगा, कोई जिगर थाम लेगा। जब सत्य पर पर्दा उठेगा तो जिन्होंने भी मान्यताएं कर रखी थीं, वे सब चौंककर अवाक खड़े रह जायेंगे। क्योंकि वे सभी पायेंगे कि सत्य उनकी किसी की भी मान्यता जैसा
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5