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में वही हो जाते हो जो दिन में नहीं हो पाते। दिन की बेचैनियां, दिन के अधूरे ख्वाब, अधूरी वासनायें, दमित कामनायें, सब सपनों में उभर आती हैं।
ज्ञानी को तो कुछ होना नहीं है। धन्यभागी है ज्ञानी। वह तो जान लिया, जो है। 'जो है' में इतना प्रसन्न है। कुछ और होना नहीं है, अन्यथा की कोई मांग नहीं है। जैसा है तृप्त है, परम तृप्त है। शुद्ध को जान लिया, बुद्ध को जान लिया, प्रिय को जान लिया, पूर्ण को जान लिया, अब और होने को क्या है? उसके सब सपने खो गये। उसकी रात स्वप्नशून्य है। उसके दिन कामनाशून्य हैं। उसके भीतर एक ही भजन चलता।
ऐसा भी नहीं है कि वह शब्द दोहराता है। बुद्धपुरुष कहीं दोहराते हैं 'राम-राम राम-राम'? ये तो तोतों की बातें हैं। लेकिन जो अहर्निश नाद चल रहा है भीतर, वह जो ओंकार चल रहा है भीतर, वह दोहराना थोड़े ही पड़ता है! वह जो वीणा बज रही भीतर प्राणों की; वह जो प्रभु गीत गा रहा है भीतर, वह जो तुम्हारे प्राणों का प्राण है वह तो चलता है, अपने से चलता है।
इसीलिए तो उसको हम ओंकार नाद कहते हैं, अनाहत नाद कहते हैं। वह तुम्हारे पैदा किये नहीं पैदा होता, तुम जब कुछ भी पैदा नहीं करते, तब सुनाई पड़ता है। अहर्निश चल रहा है। स्वरूपभाक्!
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्। 'आधाररहित और दुराग्रही मूढ़ पुरुष संसार के पोषण करनेवाले हैं। इस अनर्थ के मूल संसार का मूलोच्छेद ज्ञानियों द्वारा किया गया है।'
ज्ञानी वही है जो स्वरूप को उपलब्ध हो गया; जिसने अपने भीतर की नैसर्गिक प्रकृति को पा . लिया। जैसे कोयल प्राकृतिक है और गुलाब। और जैसे कमल प्राकृतिक है और यह पक्षियों की चहचहाहट। जिस दिन तुम भी अपने स्वरूप में हो जाते हो उस दिन ज्ञान।
शहरों के छोड़कर मुहावरे आओ हम जंगल की भाषाएं बोलें जिसमें हैं चिड़ियों के धारदार गीत खरगोशों का भोलापन कोंपल की सुर्ख पसलियों में दुबका बैठा फूलों जैसा कोमल मन कम से कम एक बार और सही हम आदिम गंधों के हो लें पेड़ों से पेड़ों का गहरा भाईचारा
ए पहाड़ जेठ की अगिनगाथा पर छा जानेवाला पोर-पोर हरियल आषाढ़ बंद हो गई हैं जो छंदों की जंग लगी खिड़की हम खोलें शहरों के छोड़कर मुहावरे
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5