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मात्र से मोक्ष को उपलब्ध हो जाते हैं। जरा भी क्रिया नहीं करते । क्रिया करने की बात ही नहीं है।
क्रिया से तो वही मिलता है जो बाहर है। अक्रिया से वही मिलता है जो भीतर है। अक्रिया आलस्य का नाम नहीं है, याद रखना । अक्रिया से मतलब अकर्मण्यता मत समझ लेना । अक्रिया का अर्थ है, क्रिया की शांत दशा । अक्रिया का अर्थ है, क्रिया की अनुद्विग्न दशा । अक्रिया का अर्थ है, जैसे झील शांत है और लहर नहीं उठती। झील है, लहर नहीं उठती। क्रिया में जो ऊर्जा लगती है, शक्ति लगती है वह तो है, लेकिन झील की तरह भरी, भरपूर, लेकिन तरंग नहीं उठती। वासना की तरंग नहीं है और वासना की दौड़ नहीं है। उस भरी हुई ऊर्जा में तुम्हें पहली बार दर्शन होते हैं।
धन्यो विज्ञानमात्रेण ।
उस घड़ी को कहो धन्यता, जब तुम्हें बोधमात्र से परमात्मा से मिलन हो जाता है। मुक्तस्तिष्ठत्य विक्रियः ।
और मुक्त... मोक्ष को खोजने से थोड़े ही कोई मुक्त होता है। मुक्त यह जान लेता है कि मैं मुक्त हूं। उसकी उदघोषणा हो जाती है।
उपनिषद कहते हैं, 'अहं ब्रह्मास्मि' : मैं ब्रह्म हूं। मंसूर ने कहा है, अनलहक: मैं सत्य हूं। यह कुछ पाने की बात थोड़े ही है। यह सत्य तो मंसूर था ही; आज पहचाना। यह उपनिषद के ऋषि ने कहा, 'अहं ब्रह्मास्मि' – ऐसा थोड़े ही है कि आज हो गये ब्रह्म । जो नहीं थे तो कैसे हो जाते ? जो तुम नहीं हो, कभी न हो सकोगे। जो तुम हो वही हो सकोगे। वही हो सकता है। इससे अन्यथा कुछ होता ही नहीं ।
अगर तुम देखते हो कि एक दिन बीज फूटा, वृक्ष बना, आम के फल लगे, तो इसका केवल इतना ही अर्थ है कि आम बीज में छिपा ही था; और कुछ अर्थ नहीं है। जो प्रकट हुआ वह मौजूद था । ऐसा नहीं है कि कोई भी बीज बो दो और आम हो जायेगा । आम के ही बीज बोने पड़ेंगे। आम ही बोओगे तो आम मिलेगा ।
अगर एक दिन उपनिषद के ऋषि को पता चला, 'अहं ब्रह्मास्मि: मैं ब्रह्म हूं;' और एक दिन गौतम सिद्धार्थ को पता चला कि मैं बुद्ध हूं; और एक दिन वर्धमान महावीर को पता चला कि मैं जिन हूं, तो जो आज पता चला है, आज जो फल लगे हैं, वे सदा से मौजूद थे। पहचान हुई। बीज में छिपे थे, प्रकट हुए। गहरे अंधेरे में हीरा पड़ा था, प्रकाश में लाये। बस, इतनी ही बात है ।
धन्यो विज्ञानमात्रेण ।
'अज्ञानी जैसे ब्रह्म होने की इच्छा करता है, वैसे ही ब्रह्म नहीं हो पाता है।'
इस बात की इच्छा करना कि मैं ब्रह्म हो जाऊं, इस बात की खबर है कि तुम्हें अभी भी अपने ब्रह्म होने का पता नहीं चला। इच्छा ही सबूत है।
जैसे कोई पुरुष इच्छा करे कि मैं पुरुष हो जाऊं, तो तुम क्या कहोगे ? तुम कहोगे, तू पागल है। तू पुरुष है। इसकी इच्छा क्या करनी ! वह कहे कि मुझे कुछ रास्ता बताओ कि मैं कैसे पुरुष हो जाऊं ?
तो तुम क्या करोगे ज्यादा से ज्यादा ? आईना दिखा सकते हो कि देख आईना ।
सदगुरु इतना ही करता है, एक आईना सामने रख देता है।
पुरानी कथा है: एक सिंहनी छलांग लगाती थी । और छलांग के बीच में ही उसको बच्चा हो
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5