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मनोवैज्ञानिक इसी को स्क्वीजोफ्रेनिया कहते हैं। आदमी दो हो गया - भीतर कुछ, बाहर कुछ । दोनों के बीच ऐसी खाई हो गई कि पुल भी नहीं बन सकता; सेतु भी नहीं बन सकता। अपने से ही संबंध छूट जाता है। क्योंकि धीरे-धीरे तुम अपना मौलिक चेहरा तो भूल जाते हो, मुखौटे को ही अपना चेहरा समझ लेते हो। हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और। तुम्हारे जीवन में ऐसी अड़चन हो जाती। तुम स्वाभाविक न रहे, बस वहीं सुख छिन जाता । सुख है स्वभाव की सुगंध ।
ये वृक्ष सुखी हैं। क्योंकि गुलाब का फूल कमल होने की चेष्टा नहीं कर रहा। क्योंकि चंपा चंपा है, चमेली चमेली है। कोई किसी के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं है । कोई कुछ और होने का उपाय नहीं कर रहा है। आदमी पागल है। स्वस्थ आदमी खोजना ही कठिन है। स्वस्थ का अर्थ भी समझ लेना । स्वस्थ शब्द बड़ा कीमती है। इसका मतलब है, स्वयं में स्थित । वही स्वस्थ है जो स्वयं में स्थित है। जो स्वभाव में है वही स्वस्थ है। स्वस्थ आदमी खोजना मुश्किल है। घाव पर घाव, समझौते पर समझौते, मुखौटों पर मुखौटे।
तुमने कभी गौर किया कि तुम कितने मुखौटे ओढ़े हुए हो ! पत्नी के सामने एक मुखौटा ओढ़ लेते, बेटे के सामने एक, नौकर के सामने और, मालिक के सामने और — दिन भर बदलते रहते। ऐसे हजारों चेहरे हैं तुम्हारे । अभ्यास ऐसा हो गया है बदलने का कि तुम्हें पता भी नहीं चलता कैसे बदल लेते। चुपचाप बदल लेते।
पति-पत्नी लड़ रहे हैं, कोई मेहमान ने द्वार पर दस्तक दे दी - मुखौटे बदल गये । मेहमान को पता ही न चलेगा। शायद ईर्ष्या से भर जाये कि कितना एक-दूसरे को प्रेम करते हैं। मैं कुछ चूक रहा हूं। मेरे जीवन में ऐसी बात नहीं। मेरी पत्नी क्यों नहीं ऐसा प्रेम करती जैसा यह पत्नी कर रही है? उसे पता नहीं कि घड़ी भर पहले, क्षण भर पहले क्या हो रहा था। उसने जब दस्तक दी थी उसके पहले क्या हो रहा था उसे पता नहीं ।
दूसरों को हंसते देखकर हरेक को ऐसा लगता है कि शायद मुझसे ज्यादा दुखी आदमी दुनिया में कोई नहीं। क्योंकि तुम्हें अपने भीतर की असलियत पता है, दूसरों को तो सिर्फ तुम्हारा मुखौटा पता है। तुम सबको धोखा दे लो, अपने को कैसे धोखा दे पाओगे ? कितना ही दो, लाख करो उपाय, तुम्हारी असलियत बीच-बीच में उभरती रहेगी और बताती रहेगी कि तुम झूठ हो।
और जब तक तुम झूठ हो तब तक तुम दुखी हो। सच होते ही आदमी सुखी होता है; प्रामाणिक होते ही सुखी होता है।
‘इस संसार में अभ्यास-परायण पुरुष उस आत्मा को नहीं जानते हैं, जो शुद्ध है, जो बुद्ध है, जो प्रिय है, जो पूर्ण है, जो प्रपंचरहित है और जो दुखरहित है । '
जिसे तुम लेकर आये हो, जिस संपदा को तुम अपने भीतर लिये बैठे हो उस तिजोड़ी को तुमने खोला ही नहीं। तुमने तिजोड़ी के ऊपर और न मालूम क्या-क्या रंग-रोगन चढ़ा दिया। तुमने तिजोड़ी खोली ही नहीं । तुम्हारे रंग-रोगन के कारण यह भी हो सकता है कि अब ताली भी न लगे। तुमने इतना रंग-रोगन कर दिया हो कि ताली का छेद भी बंद हो गया हो। और तुम जिसे खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर बंद है। तुम उसे लेकर आये हो ।
यह विरोधाभास लगेगा, लेकिन इसे याद रखना। इस पृथ्वी पर तुम उसी को खोजने के लिए भेजे
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5