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दोहराये जा रहे हैं। और तुम चकित होओगे जानकर, जो पुजारी दोहराता था वह वर्षों से दोहरा रहा था; उसे कुछ भी न हुआ। वह पुजारी ज्ञानी था लेकिन मूढ़ था। वह दोहराता रहा; तोते की तरह दोहराता रहा। जैसे तोता राम-राम, राम-राम रटता रहे। तुम जो सिखा दो वही रटता रहे। इससे तुम यह मत सोचना कि तोता मोक्ष चला जायेगा क्योंकि राम-राम रट रहा है, प्रभुनाम स्मरण कर रहा है।
यह भी हो सकता है—उस दिन हुआ तो नहीं, लेकिन यह हो सकता है कि मंदिर में कोई पुजारी न रहा हो, ग्रामोफोन रेकॉर्ड लगा हो, और ग्रामोफोन रेकॉर्ड दोहरा रहा हो कि जिसे तुम बाहर खोजते हो वह तुम्हारे भीतर है। ग्रामोफोन रेकॉर्ड को सुनकर भी कोई ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। तुम पर निर्भर है। तुम कितनी प्रज्ञा से सुनते हो। तुम कितने होश से सुनते हो।
उस सबह की घड़ी में, सरज की उन किरणों में, जागरण के उस क्षण में अनायास यह व्यक्ति जागा हुआ होगा; होश से भरा हुआ होगा। एक छोटी-सी बात क्रांति बन गई। रिझाई महाज्ञानी हो गया। वह घर लौटा नहीं। वह मंदिर में जाकर दीक्षित होकर संन्यस्त हो गया। पुजारी ने पूछा भी, कि क्या हुआ है ? उसने कहा, बात दिखाई पड़ गई। जिसे मैं बाहर खोजता हूं वह भीतर है। निश्चयमात्रेण! ___ पुजारी कहने लगा, मैं जीवन भर से पढ़ रहा हूं, मुझे नहीं हुआ और तुम्हें कैसे हो गया? उसने कहा, यह मैं नहीं जानता। तुम किस ढंग से पढ़ रहे हो तुम जानो। लेकिन यह मैंने सुना, मेरी आंख बंद हुई और मैंने देखा कि ऐसा है। भीतर सुख का सागर लहरें ले रहा है। मैंने कभी देखा नहीं था। दिखाई पड़ गया। सूत्र बहाना बन गया। सूत्र के बहाने बात हो गई।
रिझाई जब ज्ञान को उपलब्ध हो गया और रिझाई का जब खुद बड़ा विस्तार हुआ और हजारों उसके संन्यासी हुए तो उसके मठ में वह सूत्र रोज पढ़ा जाता था, लेकिन फिर ऐसी घटना न घटी।
और रिझाई बड़ा हैरान होता कि इसी सूत्र को पढ़कर...पढ़कर भी नहीं, सुनकर मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, लोग क्यों चूके जाते हैं?
तुम्हारे ऊपर निर्भर है, कैसे तुम सुनते हो। अगर तुम शांत, जाग्रत, होश से भरे सुन रहे हो तो इसी क्षण घटना घट सकती है। फिर न ध्यान करना है, न तप, न जप। फिर कुछ भी नहीं करना है। फिर तो न करना भी नहीं करना है। फिर तो न प्रयत्न और न अप्रयत्न। जो है उसका बोध पर्याप्त है।
तत्वनिश्चयमात्रेण।
वह जो तत्वतः है, वह जो सत्य है, उसका निश्चय मात्र बैठ जाये प्राणों में; हो गई क्रांति, हो गया मूल रूपांतरण।
प्राज्ञो भवति निर्वृतः। 'निश्चय मात्र हो जाने से जो प्रज्ञावान है...।' मूढ़ के विपरीत प्रज्ञा। मूढ़ के ठीक विपरीत। मूढ़ सोया हुआ; प्रज्ञावान जागा हुआ। 'केवल तत्व को निश्चयपूर्वक जानकर सुखी हो जाता है।'
पाना नहीं है सुख, सिर्फ जानना है। खोजना नहीं है, पहचानना है। कहीं जाना नहीं है, अपने घर आना है। बहुत दूर तुम निकल गये हो अपने से, यही तुम्हारी अड़चन है। जन्मों-जन्मों यात्रा करके तुम बहुत दूर निकल गये हो। लौटो! वापिस आओ!
और यह मत पूछना कि कैसे लौटें। क्योंकि तुम्हें सिर्फ खयाल है कि तुम दूर निकल गये हो। दूर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5