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हला सूत्रः अप्रयत्नात् प्रयत्नाद्वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिम्।
तत्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः।। अष्टावक्र ने कहा, 'अज्ञानी पुरुष प्रयत्न अथवा अप्रयत्न से सुख को प्राप्त नहीं होता है। और ज्ञानी पुरुष केवल तत्व को निश्चयपूर्वक जानकर सुखी हो जाता है।'
महत्वपूर्ण सूत्र है। और प्रत्येक साधक को गहराई से समझ लेना जरूरी है। प्राथमिक है। यहां भूल हुई तो फिर आगे भूल होती चली जाती है। यहां भूल न हुई तो आधा काम ठीक हो गया। ठीक प्रारंभ यात्रा का आधा हो जाना है।
, यह सूत्र बुनियाद का है। अज्ञानी पुरुष बड़े प्रयत्न करता है सुख को पाने के, पाता है दुख। प्रयत्न करता है सुख के, पाता है दुख। सफल होता जरूर है, सुख को पाने में नहीं, दुख को पाने में सफल हो जाता है। कौन नहीं जाना चाहता स्वर्ग? पहुंच सभी नर्क जाते हैं। चेष्टा सभी स्वर्ग की तरफ करते हैं, अंत में जो फल हाथ में आते हैं वे नर्क के हैं।
इन फलों से तुम परिचित हो। ये फल ही तो तुम्हारे जीवन का सार है। यही फल तो तुम्हारा विषाद है। चाहा था अमृत और विष मिला। चाहा था प्रेम और घृणा मिली। सपने देखे थे सफलता के और केवल विषाद ही विषाद प्राणों में भरा रह गया है। जीवन के अंत होते-होते, जीवन के पूरे होते-होते ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जैसे सारी प्रकृति तुम्हारे विरोध में काम कर रही है। तुम जीत न सकोगे। तुम्हारी हार सुनिश्चित है।
. सुख कौन नहीं चाहता? और सुख मिलता किसको है? यह बहुत आश्चर्यजनक है। सभी सुख चाहते हों और कोई भी सुख उपलब्ध न कर पाता हो तो सोचना पड़ेगा, कहीं कोई बड़ी गहरी भूल हो रही है। कुछ ऐसी गहरी भूल हो रही है, बुनियादी भूल हो रही है; एक से नहीं हो रही है, सभी से हो रही है। वह भूल यही है कि सुख को जिसने सोचा कि पा लूंगा, इस सोचने में ही चूक हो गई।
सुख हमारा स्वभाव है। उसे हम लेकर ही पैदा हुए हैं। सुख के बिना हम पैदा ही नहीं हुए हैं। हमारे जन्म के पूर्व से भी सुख की धारा हमारे भीतर बह रही है।
स्वभाव का अर्थ है : जो हमारा है ही।