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पैर छूना...। इसमें कौन-सा तर्क है?' वे थोड़े चौंके। वे थोड़ा सोचने लगे। वे सीधे-सरल आदमी हैं। उन्होंने दूसरे दिन मुझसे कहा कि जरूर इसमें अड़चन है, इसमें असंगति है। मैंने इस पर कभी सोचा नहीं इस भांति। तुम अगर संन्यास लोगे तो मैं बाधा डालूंगा। यह भी तो किसी का बेटा होगा
और मैं पैर छूने गया! अगर मेरी निष्ठा सच है तो तुम्हारे संन्यास लेने से मुझे प्रसन्न होना चाहिए। तो यह पैर छूना औपचारिक है; इसमें सचाई नहीं।
दूसरा संन्यासी हो जाये तो तुम प्रसन्न हो। तुम्हारे घर कोई संन्यासी हो जाये तो अड़चन आती है। मीरा से तुम्हें क्या अड़चन! तुम थोड़े जहर का प्याला भेजते हो; वह तो राणा ने भेजा! तुम तो कहते हो ः 'मीरा, अरे महाभगत! पहुंची हुई!' राणा से पूछो-पागल! कुल-मर्यादा गंवा दी!
तुम्हारे घर के लोग भी ठीक कहते हैं। वे भी संन्यासी के पैर छूने जाते होंगे और कभी-कभी मीरा की भजन-लहरी सुनकर आनंदित होते होंगे और कहते होंगे: कैसा भावपूर्ण भजन है! लेकिन तुम ऐसा भावपूर्ण भजन गाओगे तो वे पागल कहेंगे। वही मीरा के घर के लोगों ने भी कहा था। सोये हुए लोग हैं। न उन्होंने अपना जीवन जीया है, न उन्हें पता है कि कोई और भी जीवन जी सकता है। जैसा वे रहे हैं, उसी को वे मानते हैं, रहना समझदारी है। उनसे अन्यथा तुम रहोगे, अड़चन होगी। उस अड़चन को ही जाहिर करने के लिए वे कहते हैं : तुम पागल हो। ___ अब उनकी बात सुनकर तुम घबड़ाना मत और तुम कोई व्याख्याएं भी मत खोजो। तुम यह भी मत पूछो कि इसको कैसे समझायें! यह समझाने का काम नहीं। यह समझ के थोड़े बाहर जाने की ही बात है। यह समझ से थोड़े ऊपर है बात। तुम उनसे कह दो कि मैं पागल हूं। तुम इसे स्वीकार कर लो।
छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई बिना रंग के खेले होली यूं मदमाये प्राण कि जैसे नई बहू की चंदन डोली जेठ लगे सावन मन भावन
और दुपहरी सांझ बसंती ऐसा मौसम फिरा, धूल का ढेला एक रतन लगता है।
तुम्हें देख क्या लिया कि कोई सूरत दिखती नहीं पराई तुमने क्या छू दिया बन गई महाकाव्य गीली चौपाई कौन करे अब मठ में पूजा कौन फिराये हाथ सुमिरनी जीना हमें भजन लगता है मरना हमें हवन लगता है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5