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________________ ही साक्षी जागा, दुख गया। 'वीतराग दुख-मुक्त हो कर संसार के बीच बना रहता है और किसी खेद को प्राप्त नहीं होता है।' वीतरागो हि निर्दुःखस्तस्मिन्नपि न खिद्यते । फिर कहीं भी रहे वीतराग पुरुष, संसार में कि संसार के बाहर... और संसार के बाहर कहां जाओगे ! जहां है, वहां संसार ही है। आश्रम में भी संसार है, मंदिर में भी संसार है, हिमालय पर भी संसार है—संसार से जाओगे कहां! जो है, संसार है । इसलिए भागने से तो कोई राह नहीं है। तुम जहां हो वहीं जागने से राह है। 'जिसका मोक्ष के प्रति अहंकार है और वैसा ही शरीर के प्रति ममता है, वह न तो ज्ञानी है और न योगी है। वह केवल दुख का भागी है।' यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा । मैं न देह रहा, न मैं मन रहा, मैं तो चिन्मात्र हो गया, चैतन्यमात्र हो गया। उसी क्षण जिसकी ममता लगी है देह में वह दुख पायेगा । यस्याभिमानो मोक्षेऽपि ... । और जिसका अहंकार मोक्ष से जुड़ गया, वह भी दुख पायेगा । देहेऽपि ममता तथा...। और जो शरीर से जुड़ा वह भी दुख पायेगा। धन को तुमने समझा मेरा है, तो दुख पाओगे। धर्म को समझा कि मेरा है, तो दुख पाओगे। संसार को कहा कि जीत लूंगा, तो दुख पाओगे। कहा कि परमात्मा को पा कर रहूंगा, तो दुख पाओगे। तुम हो तो दुख है। तुम दुख के साकार रूप हो। अहंकार दुख की गांठ है । अहंकार कैंसर है; गड़ता रहेगा, चुभता रहेगा, सड़ता रहेगा । न च योगी न वा ज्ञानी केवलं दुःख भागसौ । ऐसा व्यक्ति जिसका शरीर से मोह लगा है या मोक्ष से मोह लग गया, संसार से लगा परमात्मा से - ऐसा व्यक्ति न तो योगी है, न ज्ञानी है, केवल दुख का भागी है। अष्टावक्र कह रहे हैं : तुम शरीर से तो छूट ही जाओ, परमात्मा से भी छूटो । संसार की तो भाग-दौड़ छोड़ ही दो, मोक्ष की दौड़ भी मन में मत रखो। तृष्णा के समस्त रूपों को छोड़ दो । तृष्णा मात्र को गिर जाने दो। तुम तृष्णा मुक्त हो कर खड़े हो जाओ। इसी क्षण परम आनंद बरस जायेगा । बरस ही रहा है; तुम तृष्णा की छतरी लगाये खड़े हो तो तुम नहीं भीग पाते । 'यदि तेरा उपदेशक शिव है, विष्णु है अथवा ब्रह्मा है, तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य नहीं होगा ।' सुनते हो इस क्रांतिकारी वचन को ! छोटे-मोटे गुरुओं की तो बात छोड़ो, स्वयं अगर शिव भी उपदेश कर रहे हों और ब्रह्मा और विष्णु, तो भी कुछ न होगा - जब तक तुम जागोगे नहीं। स्वयं परमात्मा भी खड़े हो कर तुम्हें समझाये तो भी तुम समझोगे नहीं, क्योंकि बाहर से समझ आती ही नहीं। समझ का तो भीतर अंकुरण होना चाहिए। कोई दूसरा थोड़े ही तुम्हें जगा सकता है! जागोगे तो तुम जागोगे । तुम्हारी हालत ऐसी है जैसे जागा हुआ आदमी बन कर पड़ा है कि सो रहा है; अब उसको तुम 54 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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