SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिस्थिति में उसके चैतन्य में सहज स्फुरणा होती है, वैसा कर देता है । बात खतम हो गई। उसका कुछ लेखा-जोखा भी नहीं रखता। प्रभु जो करवा लेता कर देता । जिस बात में उपकरण बना लेता उसी में उपकरण बन जाता। लेकिन सदा याद रखता कि मैं निमित्त मात्र हूं। यदा यत् कर्तुम् आयाति...। जो आ जाये उसे कर लेना । जो स्फुरणा उठे, उसे हो जाने देना । सहज भाव से जीना। जीने के लिए कोई पहले से योजना मत रखना। जीवन पर कोई जबर्दस्ती का ढांचा मत बिठाना। जीवन में 'ऐसा कर्तव्य है और ऐसा कर्तव्य नहीं है' यह भी सोच कर मत चलना । मुक्त रहना । क्षण के लिए खुले रहना। क्षण जो जगा दे, जो उठा दे, उसको कर लेना और फिर भूल जाना और आगे बढ़ जाना । बोझ भी मत ढोना । इसको खींचना भी मत अपने सिर पर कि देखो मैंने एक आदमी को कुएं से बचा लिया; मर रहा था, मैंने बचाया! अतीत का बोझ मत ढोना, भविष्य की योजना मत रखना; वर्तमान में जो हो जाये। यह 'वर्तमान' शब्द देखते हो, वर्तन से बना है ! 'जो यहां वर्तन में आ जाये' । अतीत तो वह है जो जा चुका, अब है नहीं। भविष्य वह है जो अभी आया नहीं। वर्तमान वही है जो वर्तन में आ रहा है। जो इस क्षण वर्तन हो रहा है, वही वर्तमान है। सिर्फ साक्षी - पुरुष का ही वर्तमान होता है। तुम तो पीछे से चलते हो। तुम तो अतीत से प्रभावित होते हो। वह वर्तमान नहीं है । या तुम भविष्य से प्रभावित होते हो। तुम तो किसी आदमी को जयराम जी भी करते हो सोच लेते हो कि करना कि नहीं, यह किसी मतलब का है, मेयर होने वाला हैं कि मिनिस्टर होने वाला है, कभी काम पड़ेगा! तो तुम नमस्कार करते हो । नमस्कार भी तुम आगे की योजना से करते हो, या पीछे के हिसाब से, कि इसने पीछे साथ दिया था; वक्त पड़ा था, काम आया था - नमस्कार कर लो ! तुम तो नमस्कार भी शुद्ध वर्तमान में नहीं करते। साक्षी का पूरा जीवन वर्तमान में है । जो होता है बिना किसी कारण के, सहज भाव से । I यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् सुखं कृत्वा । और तब स्वभावतः सहज भाव में सुख उत्पन्न होता है । सहज भाव सुख है। सहज भाव में सुख फूल लगते हैं। तिष्ठतः धीरस्य । और ऐसा जो धीरपुरुष है उसकी अपने में प्रतिष्ठा हो जाती है। उसका अपने में आसन जम जाता है । वह सम्राट हो जाता है, सिंहासन पर बैठ जाता है। सुख के सिंहासन पर, स्वयं के सिंहासन पर, शांति के, स्वर्ग के सिंहासन पर । प्रवृत्तौ वा निवृत्त । न तो प्रवृत्ति में उसे रस है न निवृत्ति में। न तो वह कहता है कि मैं संसारी हूं, न वह कहता मैं त्यागी हूं। मेरे संन्यास का यही अर्थ है : न त्यागी न भोगी । सहज । मध्य में। कभी भोगी जैसा व्यवहार करना पड़े तो भोगी जैसा कर लेना, कभी त्यागी जैसा व्यवहार करना पड़े तो त्यागी जैसा कर लेना । लेकिन सदा मध्य को मत खोना, बीच में आ जाना। वह जो सम्यक दशा है मध्य की, उसी का नाम 382 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy