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________________ आपरेशन ही कर दिया। उन्होंने कहा भी कि भई तू कुछ खोज-खबर तो कर ले, कि मामला क्या है ! उसने कहा : ‘कुछ नहीं, जरा-सी गांठ है।' उसने भी सोचा नहीं कि कैंसर होगा कि कुछ होगा। गांठ ऊपर-ऊपर थी, उसने निकाल दी, लेकिन फिर और बड़ी गांठ पैदा हो गई। सैप्टिक हुआ अलग, बड़ी गांठ हो गई अलग। फिर गांव के — और वह गांव भी छोटा-मोटा — गांव के डाक्टर ने आ कर आपरेशन कर दिया। फिर मद्रास के डाक्टर आये, ऐसे धीरे-धीरे... कलकत्ते के डाक्टर आये। आपरेशन साल भर चले। कोई चार-पांच दफा आपरेशन हुए। और वे बार-बार कहते कि तुम प्रकृति को अपनी प्रक्रिया पूरी करने दो, तुम क्यों पीछे पड़े हो ? मगर उनकी कौन सुनता ! उनसे लोग कहते : 'तुम चुप रहो ! भगवान, तुम चुप रहो ! तुम बीच में न बोलो। ये डाक्टर जानते हैं।' वे कहते, ठीक है। साल भर में उनको करीब-करीब मार डाला। साल भर के बाद जब डाक्टर थक गये और उन्होंने कहा, हमारे किए कुछ न होगा। तो रमण हंसने लगे। उन्होंने कहा : मैं तुमसे पहले कहता था, तुम नाहक परेशान हो रहे हो । जो होना है होने दो। अब साल भर के बाद इतने आपरेशन करके मेरे मुझे बिस्तर पर भी लगा दिया, सब तरफ से काटपीट भी कर दी - अब तुम कहते हो, हमारे किए कुछ भी न होगा ! मैं तुमसे तभी कहता था, आदमी के किए कहीं कुछ होता है ! जो होता है होता है। होने दो! मरने के क्षण भर पहले किसी ने पूछा कि आप फिर लौटेंगे? तो रमण ने कहा: 'जाऊंगा कहां ? आया कब? तो जाऊंगा कैसे ? और फिर आने की बात उठा रहे हो ! और जिंदगी भर मैंने तुम्हें यही समझाया कि न आत्मा आती और न आत्मा जाती ।' साक्षी-भाव में किसी कृत्य का कोई मूल्य नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि साक्षी भाव में कोई शराब भी पी ले तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम पीना, मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि आत्यंतिक अर्थों में शराब भी कोई पी ले साक्षी भाव में तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता । लेकिन साक्षी-भाव पर ध्यान रखना। नहीं तो तुम सोचो, चलो ठीक, हम तो साक्षी हो गये, पी लें शराब! पीने की जब तक कामना रहे तब तक तुम साक्षी नहीं हुए। साक्षी का इतना ही अर्थ होता है: जो होता है, उसे हम होने देते हैं और देखते हैं। हम देखने वाले हैं, कर्ता नहीं हैं । भगोड़ा कर्ता हो जाता है। चांदनी फैली गगन में, चाह मन में दिवस में सबके लिए बस एक जग है रात में हरेक की दुनिया अलग है। कल्पना करने लगी अब राह मन में चांदनी फैली गगन में, चाह मन में मैं बताऊं शक्ति है कितनी पगों में मैं बताऊं नाप क्या सकता डगों में पंथ में कुछ ध्येय मेरे तुम धरो तो ! आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो ! चीर वन घन भेद मरु जलहीन आऊं सात सागर सामने हों, तैर जाऊं खुदी को मिटा, खुदा देखते हैं 23
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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