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________________ सांप देख लिया था, मैं दीया ले कर तुम्हारे पास खड़ा हूं; कहता हूं गौर से देख लो। मैं तुम्हें सांप से मुक्त किए दे रहा हूं। क्या इसका यह अर्थ हुआ कि सांप था और मैं तुम्हें मुक्त कर रहा हूं सांप से ? इसका इतना ही अर्थ हुआ कि सांप तो था ही नहीं, इसीलिए मुक्त कर रहा हूं, अन्यथा मुक्त तुम होते कैसे ? दीया लाने से क्या होता था? अगर सांप था तो था । अंधेरे में शायद थोड़ा शक- शुबा भी रहता कि शायद रस्सी हो; दीया लाने से तो और साफ हो जाता कि नहीं सांप ही है। दीया लाने से तुम कैसे मुक्त हो सकते थे ? सदगुरु के पास आने से तुम मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि सदगुरु दीया है – एक रोशनी । उस रोशनी में तुम्हारे जीवन का पुनरावलोकन कर लेना । रस्सी दिखाई पड़ जाये तो क्या कहना चाहिए अब तुम सांप से मुक्त हो गये ? कि जाना कि सांप था ही नहीं ? तुम एक झूठे सांप से भयभीत हो रहे थे, जो नहीं था उससे घबड़ा गये थे । इसलिए मैंने कहा कि मैं संन्यास देते ही तुम्हें मुक्त कर देता हूं। मेरा काम पूरा हो गया। लेकिन इससे तुम्हारा काम पूरा हो गया, ऐसा मैंने नहीं कहा। तुम्हारा भी सहयोग अगर परिपूर्ण हो तो बात घट जाये। जहां सदगुरु और शिष्य संपूर्ण सहयोग में मिल जाते हैं, वहीं क्रांति घट जाती है। लेकिन तुम जब राजी होओगे तब न ! तुम स्वतंत्र होना ही नहीं चाहते। तुम बंधन के लिए नये-नये तर्क खोज लेते हो। तुम बहाने ईजाद करने में बड़े कुशल हो। अब तुम पूछ रहे हो : 'लेकिन मुक्त होते ही संन्यासी का जीवन आमूल रूप से परिवर्तित क्यों नहीं हो पाता ?' अब यह और भी महत्वपूर्ण बात समझो। संन्यास का या मुक्ति का परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि यह परिवर्तन की आकांक्षा भी अमुक्त मन की आकांक्षा है। तुम अपने को बदलना चाहते । क्यों बदलना चाहते हो? यह बदलने की चाह कहां से आती है? तुम परमात्मा हो, इससे श्रेष्ठ कुछ हो नहीं सकता अब । जो श्रेष्ठतम था, हो चुका है, घट चुका है। तुम बदलना चाहते हो। तुम परमात्मा में भी थोड़ा शृंगार करना चाहते हो। तुम थोड़ा रंग-रोगन करना चाहते हो। तुम कहते हो कि बदलाहट क्यों नहीं होती ? मुक्ति का बदलाहट से कोई संबंध नहीं है । मुक्ति की तो घोषणा ही यही है कि अब बदलने को कुछ बचा नहीं; जैसा है वैसा है। अष्टावक्र के वचन तुम सुन नहीं रहे हो ? – जैसा है वैसा है। अब बदलना किसको ? बदले कौन ? बदले किसलिए? बदले कहां ? अब तुम पूछते हो कि परिवर्तन क्यों नहीं हो पाता ? तो तुम मुक्ति का अर्थ ही नहीं समझे । परिवर्तन तो अहंकार की ही आकांक्षा है। तुम अपने में चार चांद लगाना चाहते हो । धन मिले तो . तुम अकड़ कर चल सको । पद मिले तो अकड़ कर चल सको । पद नहीं मिला, धन नहीं मिला, या मिला भी तो सार नहीं मिला - अब तुम चाहते हो कम से कम ध्यान की अकड़ हो, योग की अकड़ हो, संतत्व की अकड़ हो, कम से कम महात्मा तो हो जायें! लेकिन परिवर्तन नहीं हो रहा ! अभी तक महात्मा नहीं हुए। अभी भी जीवन की छोटी-छोटी चीजें पकड़ती हैं। भूख लगती, प्यास लगती, नींद आती - और कृष्ण तो गीता में कहते हैं कि योगी सोता ही नहीं । और भूख लगती, प्यास लगती, 334 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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