________________
रुपये भी नहीं हैं। ऐसा विषाद से भर कर गया यह आदमी। और जीवन भर दौड़ता रहा। __ उसके सेक्रेटरी ने लिखा है कि अगर मुझे भगवान कहे कि तुम्हें एंड्रू कारनेगी होना है कि एंड् कारनेगी का सेक्रेटरी, तो मैं सेक्रेटरी ही होना पसंद करूंगा। क्यों? क्योंकि मैंने इससे ज्यादा परेशान व्यस्त आदमी नहीं देखा। चौबीस घंटे लगा है।
कहते हैं कि एंड् कारनेगी एक दफा अपने बेटे को न पहचान पाया। दफ्तर में बैठा था और एक युवा निकला तो उसने अपने सेक्रेटरी को पूछा कि यह कौन है?
'आपने हद कर दी...आपका बेटा!' 'अरे, मुझे फुर्सत कहां?'
कभी अपने बेटों के पास बैठने की, बात करने की, चीत करने की, कभी उनके साथ खेलने की, छुट्टियों में किसी पहाड़ पर जाने की फुर्सत कहां। धन ही धन, एक ही दौड़। धन से आंख अंधी। अपना बेटा भी नहीं दिखाई पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन अदालत में खड़ा था और मजिस्ट्रेट ने उससे कहा: नसरुद्दीन, यह अजीब बात है कि तुमने बॉक्स तो चुराया, मगर पास ही में जो नोट रखे हुए थे उनको नहीं लिया। इसका राज क्या
नसरुद्दीन ने कहाः खुदा के लिए इस बात का जिक्र न कीजिए। मेरी बीबी इसी गलती के लिए सप्ताह भर मुझसे लड़ती रही है। अब आप फिर वही उठाये दे रहे हैं। . बॉक्स तो चुरा लिया, उसके पास जो रुपये रखे थे, बीबी लड़ती रही सात दिन तक कि वह क्यों नहीं लाये? वह मजिस्ट्रेट से कह रहा है। खुदा के लिए यह बात फिर मत उठाइए। अब हो गयी भूल हो गयी। बॉक्स चुराया, यह कोई भूल नहीं; वे जो रुपये पास में रखे थे, वह नहीं चुराया। भूल हो गयी, क्षमा करिये, अब दोबारा यह बात मत उठाइये। सात दिन सुन-सुन कर सिर पक गया। पत्नी यही बार-बार कहती है, बार-बार उठाती है कि वे रुपये क्यों छोड़ कर आये? । ___तुम्हारी जिंदगी इसी तरह के हिसाब में लगी है: क्या कर लिया, क्या नहीं किया। पूरी जिंदगी तुम यही जोड़ते रहोगे? और जब जाओगे, खाली हाथ जाओगे। सब किया, सब अनकिया, सब पड़ा रह जायेगा। किया तो व्यर्थ हो जाता है, न किया तो व्यर्थ हो जाता है।
'यह किया यह अनकिया, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म!'
उसके लिए तो धर्म तक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि धर्म का तो अर्थ ही होता है : जो करना चाहिए, वही धर्म। अधर्म का अर्थ होता है : जो नहीं करना चाहिए।
सुनते हो इस क्रांतिकारी वचन को? ऐसे व्यक्ति के लिए धर्म का भी कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि अब करने, न करने से ही झंझट छुड़ा ली। अब तो साक्षीभाव में आ गये। ऐसे व्यक्ति के लिए कहां धर्म, कहां काम, कहां अर्थ, कहां विवेक! विवेक तक की कोई जरूरत नहीं है। अब ऐसा व्यक्ति डिसक्रिमिनेशन भी नहीं करता कि क्या अच्छा, क्या बुरा; क्या कर्तव्य, क्या अकर्तव्य; कौन-सी बात नीति, कौन-सी बात अनीति। ये सब बातें व्यर्थ हुईं। द्वंद्व गया और इस द्वंद्व के जाने पर जो पीछे शेष रह जाती है शांति, वही शांति है, वही संपदा है।
इदं कृतं इदं न कृतं द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।
तथाता का सूत्र-सेतु है
327