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'आत्मा ब्रह्म है, ऐसा निश्चित रूप से जिसने जान लिया...।'
इस निश्चित रूप से जानने के लिए शास्त्र में मत जाओ, शून्य में जाओ। शब्द में मत जाओ, निःशब्द में उतरो । विचारों के तर्कजाल में मत उलझो। मौन । मौन ही द्वार है । चुप्पी साधो । घड़ी दो घड़ी को रोज बिलकुल चुप हो जाओ। जब तुम्हारे मन में कोई भी बोलने वाला न बचेगा, तब जो बोलेगा वही ब्रह्म है। जब तुम अपने भीतर पाओगे सन्नाटा ही सन्नाटा है, कोई पारावार नहीं है सन्नाटे का, कहीं शुरू नहीं होता, कहीं अंत नहीं होता – सन्नाटा ही सन्नाटा है, उसी सन्नाटे में पहली दफे प्रभु की पगध्वनि तुम्हें सुनाई पड़ेगी, पहली दफा तुम उसका स्पर्श अनुभव करोगे। वह पास से भी पास है। तुम जब तक विचार से भरे हो, वह दूर से भी दूर ।
उपनिषद कहते हैं: परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास। दूर से भी दूर, अगर तुम विचार से भरे हो। क्योंकि तुम्हारे विचार आंखों को ढांक लेते हैं । जैसे दर्पण पर धूल जम जाये और दर्पण पर कोई प्रतिबिंब न बने। या जैसे झील में बहुत लहरें हो जायें और चांद की झलक न बने। ऐसा जब तुम विचार से भरे हो तो तुम्हारे भीतर 'जो है' उसका प्रतिबिंब नहीं बनता ।
निश्चित जानने का अर्थ है: तुम इतने शांत हो गये, दर्पण बन गये, झील मौन हो गयी, विचार सो गये, धूल हट गयी - तो जो है, उसका दर्पण में चित्र बनने लगा | वही है निश्चित जानना - जब तुम प्रतिबिंब बनाते हो और उस प्रतिबिंब में तुम जानते हो : बूंद सागर है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।
है,
उस क्षण तुम्हें यह भी पता चलेगा कि भाव और अभाव मेरी कल्पनाएं थीं। कुछ मैंने सोचा था कुछ मैंने सोचा था नहीं है— दोनों झूठ थे। जो है उसका तो मुझे पता ही न था। मैं ही झूठ था, जो मैंने सोचा कि है, वह भी झूठ था; जो मैंने सोचा नहीं है, वह भी झूठ था ।
तो
ऐसा समझो कि एक रात तुमने सपना देखा। सपने में तुमने देखा कि सम्राट हो गये। बड़ा साम्राज्य है, बड़े महल हैं, स्वर्णों के अंबार हैं। और दूसरी रात तुमने सपना देखा कि तुम भिखारी हो गये, सब गंवा बैठे, राज्य खो गया, सब हार गये, जंगल-जंगल भटकने लगे, भूखे-प्यासे । एक रात तुमने सपना देखा राज्य है, एक रात तुमने सपना देखा राज्य नहीं है— क्या दोनों सपनों में कुछ भी भेद है? दोनों तुम्हारी कल्पनाएं हैं। भाव भी तुम्हारी कल्पना है, अभाव भी तुम्हारी कल्पना है। और जो है वह तुम्हें दिखाई ही न पड़ा। जिस रात तुमने सपना देखा सम्राट होने का, सपना तो झूठा था; लेकिन जो देख रहा था सपना, वह सच है। दूसरी रात सपना देखा भिखारी होने का | सपना तो फिर भी झूठा था, जो दिखाई पड़ रहा था वह तो झूठा था; लेकिन जिसने देखा, वह अब भी सच है । साम्राज्य देखा कि भिखमंगापन, देखनेवाला दोनों हालत में सच है । जो दिखाई पड़ा-भाव और अभाव - वे दोनों तो कल्पित हैं। सिर्फ द्रष्टा सच है, सिर्फ साक्षी सच है । और सब सपना है।
जैसे ही तुम शांत होओगे, ये दोनों प्रतीतियां एक ही साथ घट जाती हैं कि मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। क्योंकि साक्षी एक ही है। मेरा साक्षी अलग और तुम्हारा साक्षी अलग, ऐसा नहीं । मेरा सपना अलग, तुम्हारा सपना अलग — निश्चित ही । लेकिन मेरा साक्षी और तुम्हारा साक्षी तो बिलकुल एकरूप हैं। साक्षी में कोई भेद नहीं।
ऐसा समझो, तुम यहां बैठे हो, अगर तुम सभी शांत और मौन हो कर बैठ गये हो कि किसी के
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4