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________________ __कोई जब कहता है कि मुझे तुमसे पूरा-पूरा प्रेम है तो जरा सावधान होना, क्योंकि पूरा प्रेम, तो पीछे क्या छिपा रहे हो? इस 'पूरे' में क्या छिपा है? इतना आग्रह करके क्यों कह रहे हो कि मुझे पूरा-पूरा प्रेम है, मुझे पूरा-पूरा विश्वास है, मुझे दृढ़ श्रद्धा है? इस आग्रह के पीछे, परदे के पीछे विपरीत मौजूद है। जितना बड़ा संदेह हो उतनी ही दृढ़ता चाहिए विश्वास की। मगर फिर भी संदेह मिटता नहीं। इसलिए तो नास्तिक और आस्तिक में ऊपर से कितना ही फर्क हो, भीतर से फर्क नहीं होता। क्या भीतर से फर्क है? नास्तिक मंदिर नहीं जाता, नास्तिक परमात्मा को नमस्कार नहीं करता। तुम मंदिर जाते हो, पहुंचे कभी? तुमने नमस्कार किया, लेकिन नमस्कार उसके चरणों तक पहुंचा? तुम करते हो, नास्तिक नहीं करता है, लेकिन तुम्हारा करना भी कहां पहुंचता है? जीवन-व्यवहार में तो तुम बिलकुल एक जैसे हो। जीवन-व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। मुसलमान है, हिंदू है, ईसाई है, जैन है-जीवन-व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। ये सब श्रद्धाएं थोथी हैं, क्योंकि उधार हैं। निश्चित श्रद्धा किसकी होती है? जिसे अनुभव हुआ। रामकृष्ण के पास केशवचंद्र मिलने गये। और केशवचंद्र ने कहा कि मेरा ईश्वर में भरोसा नहीं है! मैं विवाद करने आया हूं। मैं आपके भरोसे को खंडित कर दूंगा। आप मेरी चुनौती स्वीकार करें। रामकृष्ण ने कहा : बहुत मुश्किल है। तुम यह कर न पाओगे। तुम्हारी हार निश्चित है। नहीं कि मैं विवाद कर सकता हूं। नहीं कि मेरे पास कोई तर्क है। मेरे पास कोई तर्क नहीं, लेकिन मैंने प्रभु को जाना है। तुम लाख खंडन करो, क्या फर्क पड़ता है ? मैं फिर भी जानता हूं कि परमात्मा है। यह मेरा अपना निजी अनुभव है, तुम इसे छीन न सकोगे। यह मेरी श्वास-श्वास में समाया है। यह मेरे हृदय की धडकन-धडकन में व्यापा है। यह मेरे रोएं-रोएं की पकार है. इसे तम छीन न सकोगे। तम्हारे तर्क का उत्तर मैं न दे पाऊंगा, केशवचंद्र। तुम बुद्धिमान हो, शास्त्रज्ञ हो, ज्ञानी हो, पंडित हो; मैं अपढ़ गंवार हूं-रामकृष्ण ने कहा। लेकिन उलझोगे तो गंवार से जीतोगे नहीं, क्योंकि मेरे कोई सिद्धांत थोड़े ही हैं, कोई विश्वास थोड़े ही हैं। ऐसा मेरा अनुभव है। तुम मेरे अनुभव को कैसे खंडित करोगे? जो मैंने जाना है उसे तुम कैसे अनजाना करवा दोगे? मैंने इन आंखों से देखा है। लाख दुनिया कहे, सारी दुनिया एक तरफ हो जाये और कहे कि ईश्वर नहीं है, तो भी मैं कहता रहूंगा, है। क्योंकि मैंने तो जाना है! केशव तो नहीं माने, उन्होंने तो बड़ा विवाद किया। और रामकृष्ण उनके विवाद को सनते रहे, एक भी तर्क का उत्तर न दिया। बीच-बीच में जब केशवचंद्र कोई बहुत गंभीर तर्क उठाते तो वे खड़े हो-हो कर केशवचंद्र को गले लगा लेते। केशवचंद्र बहुत बेचैन होने लगे, वह जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी देखने, केशवचंद्र के शिष्य आ गये थे कि बड़ा विवाद होगा, वे भी जरा बेचैन होने लगे। और केशवचंद्र को भी पसीना आने लगा। और केशवचंद्र ने कहा, यह मामला क्या है? आप होश में हैं? मैं आपके विपरीत बोल रहा है। रामकृष्ण ने कहा कि तुम सोचते हो कि मेरे विपरीत बोल रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे परमात्मा पर और भरोसा आने लगा है। जब ऐसी प्रतिभा हो सकती है संसार में तो बिना परमात्मा के कैसे होगी? तुम्हारी प्रतिभा अनूठी है। तुम्हारे तर्क बहुमूल्य हैं-बड़ी धार है तुम्हारे तर्कों में। यह प्रमाण है 308 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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