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________________ बड़े कृपण लोग हैं! मुक्ति तक में कृपण हैं! देने की तो बात दूर, यहां मैं कह रहा हूं, ले लो पूरा! वे कहते हैं कि इकट्ठा कैसे लें, धीरे-धीरे लेंगे! थोड़ा-थोड़ा दें, इतना ज्यादा मत दें। तुम देने में तो कंजूस हो ही गये हो, लेने में भी कंजूस हो गये हो। तुमने हिम्मत ही खो दी। तुम्हारा साहस ही नहीं बचा। 'और अगर संन्यास लेने के तुरंत बाद ही मुक्ति नहीं होती तो क्या उसका अर्थ है कि संचित की चादर अभी मोटी है?' छोड़ो भी यह चादर! यह चादर कहीं है ही नहीं। एक रात मुल्ला नसरुद्दीन सोया। बीच रात में उठ कर बैठ गया। किसी ग्राहक से बात करने लगा। कपड़े की दुकान है। और जल्दी से चादर उसने फाड़ी। पत्नी चिल्लायी कि यह क्या कर रहे हो? उसने कहा कि तू चुप रह, दूकान पर तो कम-से-कम आ कर बाधा न दिया कर। तब उसकी नींद खुली-अपनी चादर फाड़ बैठा। न वहां कोई ग्राहक है, न कोई खरीदार है। कैसी चादर? मोटी, पतली-कैसी चादर? मुक्त होने में तुम इतने ज्यादा भयभीत क्यों हो? तुम किसी-न-किसी तरह से बंधन को बचा क्यों रखना चाहते हो? डर का कारण है। डर का कारण है, क्योंकि मुक्ति तुम्हारी नहीं है। मुक्ति 'तुम' से मुक्ति है। ___ मुक्ति का अर्थ यह नहीं होता कि तुम मुक्त हो गये। तुम बचे तो मुक्ति कहां? मुक्ति का अर्थ होता है : तुम गये, मुक्ति रही। इसलिए घबड़ाहट है। इसलिए तुम कहते हो : 'थोड़ा-थोड़ा, धीरे-धीरे करेंगे। नहीं तो एकदम से खो गये...!' खोने से तुम डरे हो। 'मिट गये...!' __नदी भी डरती होगी सागर में उतरने के पहले, झिझकती होगी, लौट कर पीछे देखती होगी। इतनी लंबी यात्रा हिमालय से सागर तक की! इतने-इतने लंबे संस्मरण, इतने सपने, इतने वृक्षों के नीचे से गुजरना, इतने सूरज, इतने चांद, इतने लोग, इतने घाट, इतने अनुभव! सागर में गिरने के पहले सोचती होगी : 'मिट जाऊंगी। रोक लूं।' ठिठकती होगी, झिझकती होगी। पीछे मुंह करके देखती होगी, जिस राह से गुजर आयी। ऐसी ही तुम्हारी गति है। तुम एकदम छोड़ नहीं देना चाहते। तुम बचा लेना चाहते हो कुछ। और तुम जब तक बचाना चाहोगे तब तक बचा रहेगा। तुम तुम्हारे मालिक हो। इधर मैं जगाता रहूंगा, तुम बचाते रहना। मगर मैं अपनी तरफ से तुम्हें साफ कर दूं: कोई चादर नहीं है—न पतली, न मोटी। तुम बिलकुल उघाड़े बैठे हो। तुम बिलकुल नग्न हो, दिगंबर! कोई चादर वगैरह नहीं है। आत्मा पर कैसी चादर? कबीर ने कहा है : 'ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। खूब जतन कर ओढ़ी रे चदरिया।' मैं तुमसे कहता हूं कि ज्यों की त्यों इसीलिए धर दी, क्योंकि चादर है ही नहीं। होती तो ज्यों की त्यों कैसे धरते? थोड़ा सोचो। होती चादर तो ज्यों की त्यों धर सकते? कुछ-न-कुछ गड़बड़ हो ही जाती। जिंदगी भर ओढ़ते तो गंदी भी होती, कूड़ा-कर्कट भी लगता। धोते तो कभी! तो अस्तव्यस्त भी होती, रंग भी उतरता। धूप-धाप भी पड़ती। जीर्ण-शीर्ण भी होती। और कबीर कहते हैं : 'ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया! खब जतन कर ओढ़ी रे।' ___ चादर है ही नहीं। इसलिए ज्यों की त्यों धर दी। और चादर होती तो तुम लाख जतन से ओढ़ो, गड़बड़ हो ही जायेगी। है ही नहीं। आलसी शिरोमणि हो रहो 297
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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