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________________ न अब कोई नाराजगी है, न कोई लेन-देन है। दिया-लिया सब बराबर हो गया।' ऐसी अनुभूति का नाम मुक्ति है। मुक्ति में संचित का कोई हिसाब नहीं है। संचित में तो पुरानी धारणा तुम फिर खींच रहे हो । कर्म किया, तो उसका तो कुछ करना पड़ेगा न ! पाप किये तो पुण्य करने पड़ेंगे। पुण्य से पाप को संतुलित करना पड़ेगा, तब कहीं मुक्ति होगी। तुम बड़े हिसाब-किताबी हो। तुम दूकानदार हो। तुम्हें परमात्मा समझ में नहीं आता। परमात्मा जुआरी है, दूकानदार नहीं । परमात्मा खिलाड़ी है, दूकानदार नहीं । तुम्हें यह बात ही समझ में नहीं आती कि यह बात तो बेबूझ है। तुम यह मान ही नहीं सकते कि पुण्यात्मा भी वैसा ही है जैसा पापी। दोनों ने सपना देखा । तुम कहते हो, 'पुण्यात्मा ने भी सपना देखा, पापी ने भी । दोनों में कुछ फर्क तो होगा !' कुछ फर्क नहीं है। रात तुम साधु बन गये सपने में कि चोर बन गये, क्या फर्क है! सुबह उठ कर क्या कुछ फर्क रह जायेगा ? सुबह उठ कर दोनों सपने सपने हो गये - एक से सपने हो गये। अच्छा भी, बुरा भी। शुभ और अशुभ के जो पार हो गया, वही मुक्त है। पाप और पुण्य के जो पार हो गया, वही मुक्त है। और पार होने के लिए तुम क्या करोगे ? क्योंकि करने से तुम बंधे हो। इसलिए पार होने के लिए एक ही उपाय है कि तुम करो मत, करने को देखो ! जो हो रहा है होने दो। निमित्त तुम हो जरूर। सपना तुमसे बहा जरूर । 'तो फिर संचित का क्या भविष्य बनता है ?' न संचित कभी था । अतीत भी नहीं है, भविष्य तो क्या खाक होगा! संचित का न कोई अतीत है, न कोई वर्तमान है, न कोई भविष्य है। सपने का कोई अतीत होता है ? कोई भविष्य होता है ? कोई वर्तमान होता है? सपना होता मालूम पड़ता है, होता नहीं — सिर्फ भास मात्र, आभास भर । 'क्या वह क्षीण हो जाता है ?" तुम अपनी भाषा दोहराये चले जा रहे हो । सुबह जब तुम जागते हो तो सपना क्षीण होता है ? समाप्त होता है। क्षीण का तो मतलब यह है कि अभी थोड़ा-थोड़ा जा रहा है। तुम जाग भी गये, सपना दस इंच चला गया, फिर बीस इंच गया, फिर गज भर गया, फिर दो गज, फिर मील भर, ऐसा धीरेधीरे... तुम जागे बैठे अपनी चाय पी रहे और सपना जो है वह रत्ती - रत्ती जा रहा है, क्षीण हो रहा है। एक कोई धक्का दे दे तुमको सोते में, तुम्हारी एकदम से आंख खुल जाये, तो भी सपना गयापूरा का पूरा गया | सपना बच कैसे सकता है ? नहीं, तुम्हारा फुटकर में बहुत भरोसा है; यहां थोक की यह बात हो रही है। तुम फुटकर व्यापारी मालूम पड़ते हो। तुम कहते हो, क्षीण होगा धीरे-धीरे, धीरे-धीरे... । एक-एक सीढ़ी चढ़ेंगे। तुम्हारी मर्जी! अगर तुम्हारा इतना ही लगाव है कि धीरे-धीरे सरकोगे, तुम सरको । मगर मैं तुमसे कहता हूं कि तुम धीरे-धीरे कितना ही सरको, तुम सपने के बाहर न आ पाओगे। क्योंकि सरकना भी सपने का हिस्सा है। 'धीरे-धीरे' भी सपने का हिस्सा है। समय मात्र सपने का हिस्सा है। तत्क्षण जागो ! इसलिए कहता हूं : मैं तो संन्यास देते ही तुम्हें तत्काल मुक्त कर देता हूं। फिर अगर तुम कंजूस हो, तुम्हारी मर्जी । 296 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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