SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मत बोल । त्यागी तू है, भोगी हम हैं। वह आदमी बोला: हम समझे नहीं | आप पहेली बुझा रहे हैं! रामकृष्ण ने कहा ः हमने संसार छोड़ा और परमात्मा पाया । तुमने परमात्मा छोड़ा और संसार पाया। इसमें भोगी कौन है ? इसमें होशियार कौन है ? हमने शाश्वत भोगा; तुम क्षणभंगुर में मरे जा रहे हो । भोग कहां रहे हो? फांसी लगी है। जरा मेरी शक्ल देख, अपनी शक्ल देख । भोगी हम, त्यागी तुम ! परमात्मा को छोड़ बैठे हो, इससे बड़ा त्यागी और कोई मिलेगा संसार में ? सबको जिसने छोड़ दिया और क्षुद्र को पकड़ लिया ! नहीं, ज्ञानी भोग की कला जानता है। जो है और जो नहीं है... । असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते । दोनों को भोग लेता है। 'शून्यचित्त पुरुष समाधान और असमाधान के हित और अहित के विकल्प को नहीं जानता है । वह तो कैवल्य जैसा स्थित है।' समाधानासमाधानहिताहितविकल्पनाः । शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः ।। जो अपने में ठहर गया वह तो मुक्त हो गया, स्थित हो गया। जो अपने में ठहर गया वह शून्य हो गया। और जो शून्य हो गया वही मोक्ष में है; कैवल्य जैसा स्थित है। ऐसा व्यक्ति न तो समाधान जानता है, न असमाधान; न तो कोई प्रश्न उठते हैं, न कोई उत्तर । न तो कुछ हित है, न कुछ अहित । . दर्पण जैसा जो खड़ा है, उसे क्या हित? क्या अहित ? जो होता है, झलकता रहता है। कुछ नहीं झलकता है तो भी ठीक। कुछ झलकता है तो भी ठीक। तुम सोचते हो दर्पण प्रसन्न होता होगा जब कोई सुंदर स्त्री दर्पण के सामने खड़ी हो जाती है? या दर्पण अप्रसन्न होता होगा जब कोई कुरूप स्त्री दर्पण के सामने खड़ी हो जाती है ? दर्पण को क्या लेना-देना है? दर्पण का क्या बनता बिगड़ता है? सुंदर हो या कुरूप – दोनों झलक जाते हैं। दोनों के विदा होने पर दर्पण फिर खाली हो जाता है। सच तो यह है, जब दर्पण में प्रतिबिंब बनता है, तब भी दर्पण खाली ही होता है । प्रतिबिंब में कुछ बनता थोड़े ही है । प्रतिबिंब सिर्फ आभासमात्र है। साक्षीभाव दर्पण की दशा है— मुक्त, कैवल्य, शांत! जो भी होता है आसपास, देखता रहता है। 'भीतर से गलित हो गयी हैं सब आशाएं जिसकी और जो निश्चयपूर्वक जानता है कि कुछ भी नहीं है—ऐसा ममता-रहित, अहंकार - शून्य पुरुष कर्म करता हुआ भी नहीं करता है।' निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चितः । अंतर्गलित सर्वाशः कुर्वन्नपि करोति न । । ऐसा व्यक्ति सब करता रहता है; जो परमात्मा करवाता, करता रहता है; जो परमात्मा दर्पण के सामने ले आता है, उसका प्रतिबिंब बनाता रहता है; लेकिन कुछ करते हुए भी कर्ता नहीं होता । सब कुछ करते हुए भी कर्ता नहीं होता। कुर्वन्नपि करोति न... । करता है, फिर भी कर्तृत्व का भाव नहीं होता । उपकरणमात्र, निमित्तमात्र ! 'जिसका मन गलित हो गया है और जिसके मन के कर्म, मोह, स्वप्न और जड़ता सब समाप्त धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना 219
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy