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कहा : ‘कैसा पाना, किसका पाना, कौन पाये!' तब उन्हें याद आया, हंसने लगे और कहा किः 'तो क्या आप भी उसी तरह की बातचीत करते हैं जो रमण महर्षि करते थे। मैं गया था मिलने, लेकिन कुछ सार न हुआ। व्यर्थ समय खराब हुआ। इससे तो बेहतर था मिलना महात्मा गांधी से, बात साफ-सुथरी थी। इससे बेहतर था मिलना श्री अरविंद से, बात साफ-सुथरी थी।'
कुछ बात है जो साफ-सुथरी हो ही नहीं सकती। वही बात है जो साफ-सुथरी नहीं हो सकती। जो साफ-सुथरी है, वह कुछ करने जैसी नहीं है। जो बुद्धि की समझ में आ जाये वह समझने योग्य ही नहीं है। जो बुद्धि के पार रह जाता है, वही...।। ____ पर-रस भी समझ में आता है, विरस भी समझ में आता है, स्व-रस भी समझ में आता है; क्योंकि ये तीनों ही बुद्धि के नीचे हैं। स्व-रस सीमांत पर है; वहां से बुद्धि के पार उड़ान लगती है। विरस परिधि के पास है; पर-रस बहुत दूर है। लेकिन तीनों एक ही घेरे में हैं, बुद्धि के घेरे में हैं। रस अतिक्रमण है। रस में फिर कोई नहीं बचता।
ऐसी कभी-कभी घड़ी तुम्हारे जीवन में आती है—प्रेम के क्षणों में या प्रार्थना के क्षणों में या ध्यान के क्षणों में। किसी से अगर तुम्हारा गहरा प्रेम है तो कभी-कभी ऐसा उत्तुंग शिखर भीतर पैदा होता है जब न तो प्रेमी रह जाता न प्रेयसी रह जाती है। तब रस फलता है। तब रस झरता है। वह रस परमात्मा का रस है। इसलिए प्रेम में परमात्मा के अनुभव की पहली किरण उतरती है; या ध्यान की किसी गहरी तल्लीनता में जहां स्व-पर का भेद मिट जाता है, अभेद का आकाश खुलता है, वहां भी परमात्मा झरता है। ____ तो पूछने वाले ने प्रश्न तो ठीक पूछा है, लेकिन रस...पूछा रस, विरस, स्व-रस क्या मात्र पड़ाव हैं? रस पड़ाव नहीं है। रस तो स्रोत है और अंतिम मंजिल भी। क्योंकि अंतिम मंजिल वही हो सकता है, जो स्रोत भी रहा हो। हम अंततः स्रोत पर ही वापिस पहुंच जाते हैं। जीवन का वर्तुल पूरा हो जाता है। जहां से चले थे, वहीं आ जाते हैं। या अगर तुम समझ सको तो जहां से कभी नहीं चले, वहीं आ जाते हैं। जहां से कभी नहीं हटे, वहीं पहुंच जाते हैं। जो हैं, वही हो जाते हैं।
मैं तमोमय, ज्योति की पर प्यास मुझको है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको स्नेह की दो बूंद भी तो तुम गिराओ आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ कल तिमिर को भेद मैं आगे बढुंगा कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा किंतु मुझको आज आंचल से बचाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ दीपक बुझा नहीं, कभी बुझा नहीं और दीपक सुरक्षित है। परमात्मा का आंचल उसे बचाये ही हुए है। तुम्हारा स्नेह भी, तुम्हारा तेल भी कभी चुका नहीं। वही तो तुम्हारी जीवंतता है, वही तो तुम्हारा स्नेह है। तुम्हारा दीया भरा-पूरा है। न तो ज्योति जलानी है, न दीये में तेल भरना है; सिर्फ तुम अपनी ही ज्योति की तरफ पीठ किए खड़े हो। जो है वही दिखाई नहीं पड़ रहा है। या, तुम आंख बंद किए
खुदी को मिटा, खुदा देखते हैं