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________________ ब्रह्ममुहूर्त में तुम सोना भी चाहो तो नहीं सो सकते; नींद खुल ही जाती है। तब तरीकत शरीअत बन गयी। तरीकत में उपाय है, विधि है और मैं का भाव है, सेल्फ कांशस । जो आदमी तरीकत में जी रहा है वह अभी अहंकार के बाहर नहीं गया है। अहंकार से बाहर जाने का आयोजन कर रहा है, लेकिन अभी अहंकार के भीतर है। शरीअत में तल्लीनता आ गयी : साधक और साधना में भेद न रहा । अहंकार विसर्जित होने लगा। शरीअत में मैं खो जाता है। फिर तीसरी स्थिति है : मारिफत। पहले में मैं रहता, दूसरे में मैं खो जाता और तीसरे में परमात्मा की झलक मिलनी शुरू होती है। पहले में सिर्फ तौर-तरीका था; दूसरे में साधना जीवन का अनुषंग बन गयी, लीनता आ गयी; तीसरे में परमात्मा की झलक मिलनी शुरू होती है। क्योंकि जहां मैं मिटा, वहीं झलक आयी, झरोखा खुला । लेकिन अभी झलक जैसे दूर से आ रही है; जैसे हजारों मील दूर से किसी दिन सुबह उगते हुए सूरज में – आकाश खुला हो-तो तुमने हिमालय का शिखर देखा हो । चमकता हुआ धूप में, हजारों मील दूर से दिखाई पड़ जाता है। लेकिन अभी फासला बहुत है। अभी झलक मिली है परमात्मा की ! - चौथे में, जिसको सूफी हकीकत कहते...। हकीकत बनता है 'हक' शब्द से । हक का मतलब होता है सत्य । तुमने सुना होगा, अलहिल्लाज मंसूर का प्रसिद्ध वचन : 'अनलहक' – मैं सत्य हूं। हकीकत पर पहुंच गया। जिसको भारत में ब्रह्मज्ञान कहते हैं - हकीकत । ब्रह्मज्ञान से भी अच्छा शब्द है हकीकत। क्योंकि सत्य, सिर्फ सत्य की बात है । अब परमात्मा की भी बात न रही। जब तक परमात्मा है तब तक तुम और परमात्मा थोड़े अलग-अलग, फासला है। झलक मिली। तुम्हारा 'मैं' - भाव मिट गया है, लेकिन अभी परमात्मा में 'तू' भाव मौजूद है। तो ऐसा समझो, तरीकत में 'मैं' मौजूद है; शरीअत में 'मैं' नहीं; मारिफत में 'तू' उदय हुआपरमात्मा प्रगट हुआ। और हकीकत में न 'तू' रहा न 'मैं'; सिर्फ सत्य रह गया – अद्वैत, एक । 'मैं' और 'तू' के सारे फासले गिर गये । यह साधक की यात्रा है। तीन पड़ाव हैं, चौथी मंजिल है। तीन पर कहीं बीच में मत रुक जाना । बहुत लोग तौर-तरीके में ही रुक जाते हैं। वे सदा यही सीखते रहते हैं कि बायें नाक को दबा कर दायें सांस लें, कि दायें को दबा कर बायें से सांस लें, कि नौली धोती करें, कि शीर्षासन लगायें। सब अच्छा है। बुरा कुछ भी नहीं। लेकिन जिंदगी भर यही करते रहे, सदा इसी में रम गये... । ऐसे बहुत . लोग हैं। जिनको तुम योगी कहते हो वे अक्सर इसी में उलझ गये होते हैं। इसका ही फैलाव फैल जाता है। बस वे शरीर की ही शुद्धि में लगे रहते हैं। कभी उपवास करेंगे, कभी जल लेंगे; कभी फलाहार करेंगे - बस इसी में सारा, चौबीस घंटे, जीवन का क्रम इसी में उलझ गया। तरीकत की आवश्यकता है, लेकिन तरीकत कोई लक्ष्य नहीं है। यह ठीक है कि घर को सजाओ, लेकिन सजाते ही मत रहो। यह ठीक है कि मेहमान आता है तैयारी करो, लेकिन मेहमान को भूल ही मत जाओ, कि मेहमान आकर द्वार पर भी खड़ा हो जाये और तुम तैयारी में ही लगे हो। और तुम्हारी तैयारी ऐसी हो गयी है कि तुम अब उसकी भी फिक्र नहीं करते, तुम उससे भी कहते हो : 'रुको जी! तैयारी हो जाने दो! बीच-बीच में बाधा मत डालो !' 180 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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