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को ध्यान में रखा जाये तो बातें बड़ी विरोधाभासी हो जाती हैं। साधक को साफ-सुथरापन नहीं मालूम होता। उसे लगता है : 'क्या करें, क्या न करें? यह भी ठीक है, यह भी ठीक है-हम क्या चुनें?'
तुम चाहते हो कोई निश्चयपूर्वक कह दे कि यही ठीक है, और सब गलत है। यही तुमसे तुम्हारे धर्मगरु कहते रहे कि यही ठीक है. बस यही ठीक है, और सब गलत है। इसलिए नहीं कि और सब गलत है; सिर्फ इसलिए ताकि तुम निश्चित हो जाओ; ताकि तुम्हारे संदेह से भरे मन में निश्चय की किरण पैदा हो जाये।
— नहीं, मगर यह निश्चय की किरण बड़ी महंगी पड़ी। मुसलमान समझते हैं, मुसलमान ठीक हैं, हिंदू गलत है। हिंदू समझते हैं हिंदू ठीक, मुसलमान गलत है। इस निश्चय की किरण से धर्म तो आया नहीं, युद्ध आये। इस निश्चय की किरण से संघर्ष हुआ, हिंसा हुई, खूनपात हुआ। ___ नहीं, मैं तुम्हें यह निश्चय की किरण नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें समझ की किरण देना चाहता हूं। . मेरे देखे, जितना समझदार आदमी होगा उतना ही 'मुझसे विपरीत भी सही हो सकता है' इसकी उदारता उसमें होगी। वही उदारचित्त 'महाशय' है। वह यह जानेगा कि मैं ही ठीक हूं, ऐसा नहीं; मुझसे विपरीत भी ठीक हो सकता है। क्योंकि परमात्मा बड़ा है। वह मुझसे विपरीत को भी सम्हाल सकता है। परमात्मा में विरोधाभास लीन हो सकते हैं, एक-दूसरे में समाहित हो सकते हैं। परमात्मा विरोधों के बीच संगीत है। ___ इसलिए जो ज्ञान समझपूर्वक पैदा हो-निश्चय के कारण नहीं, अंधी श्रद्धा के कारण नहीं, जबर्दस्ती आंख बंद करके नहीं... । नहीं तो फिर मैं ठीक हूं, तुम गलत हो। क्योंकि तब तो ऐसा लगता है : या तो तुम ठीक हो या मैं ठीक हूं। दोनों कैसे ठीक हो सकते हैं? ___ मैं तुमसे कहता हूं : दोनों ठीक हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम दोनों मार्ग पर चलो। दोनों पर चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। कोई दो नाव पर सवार हो सकता है? या कोई दो घोड़ों पर बैठ सकता है ? मैं तुमसे यह कह रहा हूं : दूसरा घुड़सवार भी पहुंच जायेगा; तुमसे नहीं कह रहा हूं कि तुम दो घोड़ों पर बैठो। तुमसे इतना ही कह रहा हूं, उदार चित्त रखो, दूसरा भी पहुंच जायेगा। दूसरे की निंदा मत करो। यह मत कहो कि स्वर्ग सिर्फ हमारा है और तुम्हारे लिए सब नर्क है।
स्वर्ग सबके लिए है। स्वर्ग सबका है; किसी की मालकियत नहीं है। और तुम्हें जिस भांति सहज होने में सुविधा मिले, तुम उसी घोड़े पर सवार हो जाओ। एक पर ही सवार होना होगा। चलते समय तो एक ही रास्ता चुनना होगा। तुम्हें पता है कि पहाड़ पर सभी रास्ते ऊपर पहुंच जाते हैं, फिर भी कोई आदमी दो रास्तों पर साथ-साथ तो नहीं चल सकता। जानते हुए कि सभी रास्ते पहाड़ के ऊपर पहुंच जाते हैं, चोटी पर, फिर भी तो तुम्हें एक ही रास्ते पर चलना होगा। तुम दो पर तो चल न सकोगे। तुम अपने पर चलो। लेकिन दूसरे रास्तों वाले लोग भी पहुंच जाते हैं, यह बोध तुम्हें बना रहे। इसलिए मैं सारे मार्गों की इकट्ठी बात कर रहा हूं। __ तुम्हें विरोधाभास लगेगा, क्योंकि चित्त को उदार होने में बड़ी कठिनाई होती है। चित्त उदार नहीं है, चित्त बहुत संकीर्ण है। और इस बात का मजा भी तुम्हारा खो जाता है कि हम ही सत्य हैं और दूसरे गलत हैं। लोगों को सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितने अहंकार का रस लेने की चिंता है कि मैं ठीक! ठीक की कोई चिंता नहीं है कि ठीक क्या? इसकी चिंता ज्यादा है कि मैं ठीक। यह मजा कि मैं ठीक
तू स्वयं मंदिर है
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