________________
स्तुति में भी तुम रस लेते हो। ध्यान रखना, न निंदा में रस लेना, न स्तुति में रस लेना । दोनों रुग्ण रस हैं, बीमार हैं। दोनों को तुम छोड़ दो तो तुम्हारा अहंकार बेसहारा हो जाये। धीरे-धीरे तुम्हारे अहंकार की लकीर पूरी की पूरी विलुप्त हो जायेगी । और जब अहंकार खो जाता है तो जो शेष रह जाता है, वही पाने योग्य है। फिर न तो कुछ देने को है, न कुछ लेने को है । जो है, है ।
न ददाति न गृहणाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः ।
फिर न तो मुक्त पुरुष को कुछ लेना है किसी से, न किसी को कुछ देना है । सब उसका है और कुछ भी उसका नहीं है। सब उसे मिला है और किसी की उसे आकांक्षा नहीं है। वह समस्त के साथ एक हो गया; सर्व के साथ एक हो गया, सर्व रस में लीन हो गया — इसलिए नीरस है ।
इन सूत्रों पर ध्यान करना। और इन सूत्रों को सिर्फ सिद्धांत की तरह मत समझना। ये तुम्हारे जीवन के लिए स्पष्ट निर्देश हैं। इनका जरा उपयोग करोगे तो तुम्हारा अनगढ़ पत्थर गढ़ा जाने लगेगा। तुम्हारे अनगढ़ पत्थर में तुम्हारी प्रतिमा उकरने लगेगी। धीरे-धीरे रूप प्रकट होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर परमात्मा को छिपाये बैठा है। थोड़े निखार की जरूरत है। थोड़े स्नान की जरूरत है। धूल बह जाये । गलितधीः— विचार गिर जायें - तो परम आनंद तुम्हारा स्वभाव है।
हरि ॐ तत्सत् !
शून्य की वीणा : विराट के स्वर
167