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________________ चोटी कटवाओ, जनेऊ पहनाओ-जो चाहो करो। बच्चा कुछ भी तो नहीं कह सकता। क्योंकि अभी कुछ पता ही नहीं है उसे कि क्या हो रहा है। अभी हां-ना कहने का उपाय भी नहीं है। और इसके पहले कि वह हां-ना कहे, तुम वर्षों तक इतना दीक्षित कर दोगे उसे कि हां-ना कहना मुश्किल हो जायेगा। गलितधीः का अर्थ होता है, यह जो संस्कार तुम्हें दूसरों ने दिये हैं, इन सबका त्याग। शून्याः दृष्टि-तब तुम शून्य-दृष्टि हो जाते हो। चेष्टा वृथा...। और जो साक्षी हो गया उसे दिखाई पड़ता है कि चेष्टा करने की कोई जरूरत नहीं है-जो होना है अपने से हो रहा है। नदी चेष्टा थोड़े ही कर रही है सागर जाने की। जा रही है जरूर, मगर चेष्टा नहीं कर रही है। वक्ष बडे होने की चेष्टा थोडे ही कर रहे हैं बड़े हो रहे हैं जरूर। बादल बरसने। चेष्टा थोड़े ही कर रहे हैं-बरस रहे हैं जरूर। चांद-तारे घूमने की चेष्टा थोड़े ही कर रहे हैं-घूम रहे हैं जरूर। घूमने की चेष्टा हो तो किसी दिन सूरज सुबह देर से उठे-कि हो गया बहुत, आज आराम करेंगे। सारी दुनिया में छुट्टी होती है। रविवार...सूरज का दिन है रविवार। सारी दुनिया छुट्टी मना रही है, मगर सूरज को छुट्टी नहीं। वह कह दे कि आज रविवार है, आज नहीं आते, आज आराम करेंगे। फिर कभी तो थक जाये, अगर चेष्टा हो। कभी तो विश्राम करना पड़े। नहीं, चेष्टा है ही नहीं। थकान कैसी? छुट्टी कैसी? अवकाश कैसा? कोई कुछ कर थोड़े ही रहा है, सब हो रहा है। ___जिसकी दृष्टि शून्य हो जाती है, जिसकी बुद्धि गल जाती-वह अचानक जाग कर देखता है : मैं नाहक ही पागल बना! क्या-क्या करने की योजनाएं कर रहा था, क्या-क्या बनाने की योजनाएं कर रहा था! सब अपने से हो रहा है। मैं व्यर्थ ही बोझ ढोता था। कर्ता बन कर नाहक तनाव और चिंता ले ली थी। विक्षिप्त हुआ जा रहा था। ___ 'जिसका संसार-सागर क्षीण हो गया, ऐसे पुरुष में न तृष्णा है, न विरक्ति; उसकी दृष्टि शून्य हो गयी, चेष्टा व्यर्थ हो गयी, और उसकी इंद्रियां विकल हो गयीं।' इंद्रियाणि विकलानी...। अभी जो ऊर्जा है हमारी, जीवन की ऊर्जा, वह सारी की सारी इंद्रियों के साथ जुड़ी है। जैसे ही व्यक्ति शांत होता, शून्य होता, साक्षी बनता, ऊर्जा इंद्रियों से मुक्त होकर ऊपर की तरफ उठनी शुरू होती है। इंद्रियां ऊर्जा को नीचे की तरफ लाने के उपाय हैं। जिसके भीतर ऊर्जा ऊपर नहीं उठ रही है उसके लिए प्रकृति ने उपाय दिया है कि ऊर्जा इकट्ठी न हो जाये, नहीं तो तुम फूट जाओगे। तो ऊर्जा नीचे से निकल जाये। जिस दिन ऊर्जा ऊपर उठने लगती है, इंद्रियां अपने-आप शांत हो जाती हैं। इंद्रियों की जो प्रबल चेष्टा है वह शांत हो जाती है। देखते हो फिर तुम तब भी, लेकिन आंख कहती नहीं कि देखो सौंदर्य को, चलो देखो सौंदर्य को! सुनते हो तुम तब भी, पर कान कहते नहीं कि चलो सुनो, सुंदर मधुर संगीत को। स्वाद तुम तब भी लेते हो, लेकिन जिह्वा तुम्हें पीड़ित नहीं करती, परेशान नहीं करती, सपने नहीं उठाती, वासना नहीं जगाती कि चलो, भोजन करो; अगर भोजन नहीं तो कम से कम सपने में ही बैठ कर भोजन करो; कल्पना ही करो स्वादिष्ट भोजनों की। नहीं, सब काम चलते रहते हैं। लेकिन इंद्रियों से जो पुराना पैशन, वह जो पुरानी वासना थी, वह जो बल था, वह विलीन हो जाता है। 156 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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