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आखिरी प्रश्न-पूछा है स्वामी आनंद भारती, हिम्मत भाई जोशी ने। प्रश्न तो है भी नहीं, इतना ही लिखा है: हम्मा के प्रणाम!
म गर कुछ कहने का मन उनका हुआ
| होगा। कई बार ऐसा होता है, कुछ कहने का मन होता है और कहने को भी कुछ नहीं होता। कुछ गाने का मन होता है, गीत कुछ बनता भी नहीं। कुछ धुंधला-धुंधला होता है, साफ पकड़ में नहीं आता, शब्द में बंधता नहीं। सच तो यह है कि जब भी कुछ महत्वपूर्ण होता है तो शब्द में बंधना मुश्किल हो जाता है। तो उस क्षण आदमी क्या करे? कभी रोता है; आंख से आंसू गिरा देता है। वह भी कुछ कह रहा है। कभी हंसता; हंसी से कुछ कह रहा है। कभी चुप रह जाता, अवाक रह जाता; चुप्पी से कुछ कह रहा है। कभी अपने प्रणाम ही निवेदित कर देता, और क्या करे? ___ हजारों-हजारों सालों से बुद्धपुरुषों के चरणों में लोगों ने सिर रखे हैं—किसी और कारण से नहीं। कुछ करने को सूझता नहीं। कुछ और क्या करें?
पश्चिम में पैरों पर सिर रखने की कोई परंपरा नहीं है। क्योंकि बहुत बुद्धपुरुष नहीं हुए। यह तो बुद्धपुरुषों के कारण पैदा हुई परंपरा। क्योंकि सब खाली मालूम पड़ता है, क्या कहें? धन्यवाद भी देते है तो धन्यवाद शब्द थोथा मालूम पड़ता है। तब एक ही उपाय है कि पूरा सिर चरणों पर रख दें।
तुमने कभी खयाल किया, क्रोध आ जाता है तो तुम जूता उतार कर किसी के सिर पर मार देते हो। क्या कर रहे हो तुम? तुम यह कह रहे हो कि हम अपने पैर तुम्हारे सिर पर रखते हैं—प्रतीकात्मक रूप से। सिर पर पैर रखना बड़ा कठिन काम है-उछलना-कूदना पड़े, हाथ-पैर टूट जायें तो संकेत के रूप में जूता रख देते हैं सिर पर; कि लो, तुम्हारा सिर और हमारा जूता!-जब क्रोध होता है। और जब कोई बहुत गहन श्रद्धा पैदा हो तब तुम क्या करोगे? तब तुम किसी के चरणों पर अपना सिर रख देते हो कि अब हम और क्या करें। अब कुछ कहने को नहीं।
हिम्मत भाई वर्षों से मेरे साथ जुड़े हैं—बहुत ढंग से जुड़े हैं। कभी दोस्ती में, कभी दुश्मनी में; कभी श्रद्धा, कभी अश्रद्धा; कभी मेरे पक्ष में, कभी विपक्ष में सब रंग में जुड़े हैं! बुरी तरह जुड़े हैं! कच्चा काम नहीं है। सब रंगों से जुड़े हैं। अब तो धीरे-धीरे सब रंग भी चले गये। अब सिर्फ जोड़ रह गया है।
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
मिट्टी की अंजलि में मैंने जोड़ा स्नेह तुम्हारा बाती की छाती दे तुमने मेरा भाग्य संवारा करूं आरती तो भी दिखते हैं वरदान तुम्हारे . अपने प्राणों के दीप कहां जो बालूं! क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4