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________________ होता है? मौत करती क्या है ? मौत समय छीन लेती है। मौत करती क्या है? मौत भविष्य का दरवाजा बंद कर देती है। मौत मौका नहीं देती कि अब आगे और समय है। होशियार आदमियों ने और आगे की भी तरकीब निकाल ली है। वे कहते हैं, फिर जन्म होगा; फिर वासना फैलने लगी। इस जन्म में जो नहीं हुआ, अगले जन्म में कर लेंगे! क्या जल्दी है? फिर वासना ने नये अंकुर ले लिये, नये पत्ते खिलने लगे। उन्होंने मौत को भी झुठला दिया। वह जो मौत घबराहट लाती थी, वह भी मिटा दी। उन्होंने मौत में से भी रास्ता निकाल लिया। मौत का डर इसी बात का डर है कि मौत कहती है : अब आगे कल नहीं। जो कल को मिटा दे, उसी को तो हम काल कहते हैं। काल यानी मृत्यु। अब कल नहीं। प्राण घबड़ाने लगे। आज तो कुछ मिला नहीं। आज तो कभी मिला नहीं। आज तो ऐसे ही खाली गया। कल की ही आशा में जीते थे, वह आशा भी मौत ने छीन ली। मौत तुमसे कुछ भी नहीं छीनती-सिवाय तुम्हारी आशाओं के। इसलिए जिस आदमी ने आशाएं छोड़ दी हैं, उससे मौत कुछ भी नहीं छीनती। फिर उसके पास छीनने को कुछ है ही नहीं। वह मौत के सामने खडा हो जाता है। जिस आदमी ने सपने छोड दिये. मौत का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। क्योंकि मौत सिर्फ सपनों को मार सकती है, सत्य को नहीं; झूठ को मार सकती है, सच को नहीं। तो जिस आदमी के सपने नहीं हैं उसके लिए मौत का कोई भय न रहा: मौत समाप्त हो गयी. वह आदमी अमत हो गया। जैसे ही तुम सपने से छूटे, समय से छूटे। समय से छूटे कि अमरत्व को उपलब्ध हुए। . अब यहां भी खयाल रखना, साधारण वासनाग्रस्त आदमी की जो अमरता की धारणा है, वह भी गलत है। उसकी अमरता की धारणा है : खूब लंबा जीवन, कभी खतम न होने वाला जीवन! यह उसकी अमरता की धारणा है। वह कहता है : जीयेंगे, जीयेंगे; मरेंगे कभी नहीं। और आगे, और आगे, और आगे! उसकी अमरता की धारणा समय का फैलाव है। ज्ञानी जब अमरत्व की बात करता है तो उसका मतलब यह नहीं होता। उसका अर्थ यह नहीं होता कि लंबाई समय की। उसका अर्थ होता है समय की समाप्ति। इसलिए ज्ञानी और अज्ञानी कभी-कभी एक ही भाषा बोलते हैं, लेकिन उनके अर्थ बिलकुल अलग-अलग होते हैं। ज्ञानी जब कहता है, अमर हो गये तुम, तो वह यह नहीं कह रहा है कि अब तुम सदा रहोगे। अब वह यह कह रहा है बस, वर्तमान ही तुम्हारा रहना है, और कोई रहना नहीं। इस क्षण में तुम हो। बस इतना काफी है। इससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। यह क्षण ही शाश्वत हो गया। कोई लंबाई नहीं है, गहराई है। इस क्षण में से ही तुम गहरे उतर गये। उस गहराई का कोई ओर-छोर नहीं है, पारावार नहीं है! पूछा है तुमनेः 'काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं?' समय की छाया सिर्फ काम है। चाहे काम को समय की छाया कहो या समय को काम की छाया कहो। ज्यादा उचित होगा कि समय काम की छाया है। अगर काम गिर जाता है तो समय गिर जाता है। अगर समय गिर जाये तो काम भी गिर जाता है। लेकिन प्रयास तुम्हें काम को गिराने से ही करना पड़ेगा। क्योंकि बहुत मूल में काम है, कामना है; कुछ चाहिए। जैसा मैं हूं वैसे से राजी नहीं हूं; कुछ और होना चाहिए! बस इसी में काम का बीज है। जो मुझे मिला, काफी नहीं; कुछ और मिलना रसो वैसः 117
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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