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सूत्र
है कि जो पहुंच जाता है तो बोलने वाला भी चुप हो जाता है और चलने वाला भी गिर पड़ता है। जो बड़ा उद्यमी था, महाआलसी हो जाता है। आलस्य शिरोमणि! सब दौड़-धाप गई ! दौड़ना कहां ! जाना कहां! हैं वहीं ! वहीं हैं । तो कोई चंचलता न रही। बोलना किससे है ! कहना किससे है ! प्रार्थना तभी है जब कहने को कुछ भी न बचा, कहने वाला न बचा, जिससे कहना था वह भी न बचा। उस मौन के क्षण का नाम है प्रार्थना । बोलकर प्रार्थना को खराब मत कर लेना । कुछ कह कर बात बिगाड़ मत लेना। कुछ कहा कि चूके, क्योंकि कहने में तुमने मान ही लिया कि दो हैं, कि तू है पतितपावन और हम हैं पापी । तुम्हारे भीतर वही बैठा है जिसको तुम पापी कह रहे हो; वही, जिसको तुम पतितपावन कह रहे हो! यह विभाजन तुमने जो खड़ा कर लिया है कि तू ऊपर और हम नीचे; और तू महान और हम क्षुद्र - तुम किसको क्षुद्र कह रहे हो ? वही तुम्हारे भीतर, वही तुम्हारे बाहर। एक का ही वास है। एक का ही विस्तार है। इस एक के विस्तार की जब गहन प्रतीति होती है तो एकाकी रमण !
इसका यह मतलब मत समझना कि तुमको हिमालय की गुफा ही में बैठे रहना पड़ेगा। अब तुम जहां भी रहो, तुम एक की गुफा में बैठ गये; अब तुम जहां भी रहो, तुम एकाकी हो ! तुम भीड़ में जाओ तो, बाजार में जाओ तो, एकांत में जाओ तो वही है ! एक ही सागर की लहरें हैं, तुम भी उसमें एक लहर हो ।
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'जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है... ।'
अब खयाल रखना—सदा एकाकी रमण ! तुम अगर गुफा में बैठे हो तो सदा तो एकाकी हो ही नहीं सकते। गांव से कोई भोजन तो लायेगा तुम्हारे लिए ? तब उतनी देर को तुम एकाकी न रह जाओगे। और कोई कौआ आ कर बैठ गया है गुफा पर और कांव-कांव करने लगा है तो तुम एकाकी नहीं रह गये। अब कौओं का क्या करो! कौए कोई बहुत आध्यात्मिक तो हैं नहीं। संत-पुरुषों का समादर करते हों, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। संत असंत में भेद करते हों, ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता है। कौए परमज्ञानी हैं; भेद करते ही नहीं; परमहंस की अवस्था में हैं। वे यह थोड़े ही देखेंगे कि आप बड़ा ध्यान कर रहे हैं, माला जप रहे हैं। इसकी जरा भी चिंता न करेंगे। कोई कुत्ता आकर और गुफा में विश्राम करने लगा तो क्या करोगे ? अकेले न रहे। अकेले सदा तो कैसे रहोगे ? सदा तो अकेले तभी रह सकते हो जब अकेलापन उस परम एकाकी से जुड़ जाये। फिर तुम कहीं भी रहो, कैसे भी रहो - कौआ आये तो भी तुम्हारा ही स्वभाव है और कुत्ता आये तो भी तुम्हारा ही स्वभाव है; कोई न आये तो भी वह मौजूद है, कोई आये तो भी वह मौजूद है; कोई न हो तो अरूप की तरह मौजूद है, कोई हो तो रूप की तरह मौजूद है — मगर हर हालत में एक ही मौजूद है। बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, सब आयामों में, दसों दिशाओं में, एक की ही गूंज चल रही है !
. और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान का और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है।' ज्ञान फल है; कांसिक्वेंस; परिणाम। तो तुम शास्त्र को कितना ही पढ़ लो, इकट्ठा कर लो - ज्ञान न हो जायेगा। खुद के पन्ने उलटो ! जरा भीतर चलो। खुद की किताब खोलो। इसको तो कब से बांध कर रखा है, खोला ही नहीं तुमने । जन्म-जन्म हो गये, यह किताब तुम लिए चलते हो, लेकिन कभी खोला नहीं तुमने। तुम दूसरों से पूछते फिर रहे हो कि मैं कौन हूं! तुम हो और तुम्हें पता नहीं, तो दूसरे
सहज ज्ञान का फल है तृप्ति
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