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उसकी वासना उसे नई यात्रा पर ले गई।
तो साधु-संत तुम्हें समझाते रहे हैं : 'इंद्रियों को काटो, जलाओ, खराब करो।' नहीं, ज्ञानी ऐसा नहीं कहते। ‘स्वच्छेन्द्रियः !' तुम्हारी इंद्रियां और सेंसिटिव और संवेदनशील हो जायेंगी। तुमसे लोगों ने कहा है : स्वाद को मार डालो।
महात्मा गांधी के आश्रम में व्रतों में एक व्रत था : अस्वाद ! स्वाद को मार डालो ! अष्टावक्र वचन का क्या अर्थ होगा ? स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ अस्वाद हो सकता है ? स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ होगा : परम स्वाद । ऐसा स्वाद कि भोजन में भी ब्रह्म का अनुभव होने लगे- स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ होता है। स्वाद मार डालो! तो जीभ से, रसना से, जो परमात्मा की अनुभूति हो सकती थी वह मर जायेगी।
पश्चिम का बड़ा विचारक लुई फिशर गांधी जी को मिलने आया । वह उनके ऊपर किताब लिख रहा था। अपने साथ ही उसे उन्होंने भोजन पर बिठाया। वे नीम की चटनी खाते थे, उसकी थाली में भी नीम की चटनी रख दी - स्वाद खराब करने को ! अस्वाद का व्रत चल रहा है तो नीम की चटनी, ताकि थोड़ा-बहुत स्वाद अगर भोजन में से आ जाये तो नीम की चटनी उसको खराब कर दे। फिशर सौजन्यतावश जरा-सा चख कर देखा कि यह चीज क्या है! कड़वा जहर! उसने सोचा कि अब कुछ कहना ठीक नहीं। उसको किसी ने चेताया भी था कि सावधान रहना, वे नीम की चटनी देंगे ! तो यही है नीम की चटनी! उसने यह सोचा कि बजाय पूरा भोजन खराब करने के इसको एक ही दफा, इस अंटे को गटक जाओ, तो फिर कम से कम पूरा भोजन तो ठीक से हो जायेगा, यह झंझट मिटेगी । `तो वह पूरी चटनी एक साथ गटक गया। गांधी जी ने कहा कि और लाओ, फिशर को चटनी बहुत पसंद आई !
तुम स्वाद को मार ले सकते हो। कभी-कभी स्वाद अपने से भी मर जाता है, लेकिन तुमने उसमें कुछ महिमा देखी ? बुखार के बाद तुम्हारी रसना क्षीण हो जाती है, क्योंकि रसना के जो स्वाद को देने वाले छोटे-छोटे अंकुर हैं वे रोग में शिथिल हो जाते हैं। तो तुम मिठाई भी खाओ तो मीठी नहीं मालूम पड़ती, भोजन में कोई स्वाद नहीं आता, सब तिक्त - तिक्त मालूम होता है, उदास-उदास! लेकिन उससे कुछ महिमा आती है? उससे कुछ आत्मा का अनुभव होता है? और अगर इतना सस्ता हो तो जीभ पर ऐसिड डलवा कर खराब ही कर लो एक बार, बार-बार नीम की चटनी क्या खानी ! एक दफा साफ करवा लो, चले जाओ डाक्टर से, वह छील कर अलग कर देगा ! बहुत थोड़े-से स्वाद के अनुभव को लेने वाले बिंदु हैं जीभ पर, वह अलग कर देगा । आपरेशन करवा लो। मगर इससे क्या तुम किसी आत्म-अनुभव को उपलब्ध हो जाओगे ?
नहीं, न तो आंख के फूटने से रूप में रस जाता, न स्वाद के मिटने से स्वाद में रस जाता। स्वाद ऐसा गहन हो जाये कि भोजन तो मिट जाये और परमात्मा का स्वाद आने लगे । 'अन्नं ब्रह्म' – उपनिषद कहते हैं कि अन्न ब्रह्म है । तो स्वाद को बढ़ाओ, स्वच्छ करो । स्वाद को विराट करो। स्त्री को देखा, आंख मत फोड़ो; और जरा गौर से देखो कि स्त्री में ब्रह्म दिखाई पड़ने लगे- तो आंख स्वच्छ हो गई। ब्रह्म के अतिरिक्त जब तक तुम्हें कुछ और दिखाई पड़ रहा है, उसका अर्थ इतना ही है कि आंख अभी पूरी स्वच्छ नहीं हुई । जब आंख पूरी स्वच्छ हो जायेगी तो ब्रह्म ही दिखाई पड़ेगा, एक ही दिखाई पड़ेगा । जब सारी इंद्रियां स्वच्छ होती हैं तो सभी तरफ से उसी एक का अनुभव होता है। छुओ तो वही हाथ
सहज ज्ञान का फल है तृप्ति
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