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धोखे में हैं।
'अरे', मुल्ला ने कहा, 'तुम मुझे मत चराओ! हालांकि यह मैं देख रहा हूं कि तुम बड़े मोटे-तगड़े थे, एकदम दुबले हो गये। इतना ही नहीं, तुम छ: फीट लंबे थे, एकदम पांच फीट के हो गये! मगर तुम मुझे धोखा न दे सकोगे। तुम वही हो न अब्दुल रहमान ?'
उस आदमी ने कहा: ' क्षमा करिए, मेरा नाम फरीद है।' उसने कहा: 'हद हो गई, नाम भी बदल लिया! मगर तुम मुझे धोखा न दे सकोगे।'
दस साल के बाद मित्र को भी पहचानना मुश्किल हो जाता है। दस साल के बाद अपने बेटे को भी पहचानना मुश्किल हो जाता है। दस साल अगर देखो न.. । रोज-रोज देखते रहते हो, इसलिए आसानी है; क्योंकि रोज-रोज धीरे - धीरे परिवर्तन होता रहता है और तुम धीरे - धीरे परिवर्तन से राजी होते जाते हो।
नहीं, चित्र से पता लगाना संभव नहीं। ही, असली आदमी पता हो तो चित्रों में उसकी झलक तुम खोज ले सकते हो। असली से छाया का सदा पता मिल जाता है।
इस सूत्र का इतना ही अर्थ है कि तुम शब्दों में मत खो जाना, निःशब्द की तलाश करना । और निःशब्द की तलाश करना हो तो शास्त्र को, सिद्धात को, फिलासफी को विस्मरण करना ।
'हे विश, भोग, कर्म अथवा समाधि को भला साधे, तो भी तेरा चित्त उस स्वभाव के लिए जिसमें सब आशायें लय होती हैं, अत्यंत लोभायमान रहेगा । '
यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। अष्टावक्र कहते हैं कि तू चाहे शास्त्र को पढ़ कर कितना ही ज्ञानी हो जा, विज्ञ बन जा, महाज्ञानी हो जा; तू शास्त्र को पढ़ कर कितना ही भोग कर ले, कर्म कर ले; इतना ही नहीं, समाधि को भी साध ले शास्त्र को पढ़ कर - तो भी तू पायेगा कि तेरे भीतर स्वास्थ्य को पाने की आकांक्षा अभी बुझी नहीं; स्वयं होने की आकांक्षा अभी प्रज्वलित है। क्योंकि समाधि को भी तू पा ले शास्त्र को पढ़ कर, सम्हाल ले अपने को, शांत भी बना ले, जर्बदस्ती ठोकपीट कर बैठ जा बुद्ध की तरह आसन में, शरीर को, मन को समझा-बुझा कर, बाध-बांध कर व्यवस्था में, अनुशासन में किसी तरह चुप भी कर ले तो भी तू स्वस्थ न हो पायेगा।
भोग कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते
चाहे तू भोग कर, कर्म कर, चाहे तू समाधि को साध ले, शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर...।
चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थ रोचयिष्यति ।
फिर भी तेरे भीतर तू जानता ही रहेगा कि अभी मूल से मिलन नहीं हुआ कुछ चूका - चूका है; कुछ खाली - खाली है।
इसलिए पतंजलि भी समाधि के दो विभाग करते हैं। एक को कहते हैं : सविकल्प समाधि । सविकल्प समाधि ऐसी है कि अभी स्मरण समाप्त नहीं हुआ, शास्त्र अभी पुंछे नहीं। मन शांत हो