________________
मेरी धड़कन मेरी आहे मांगेंगी तुमसे प्रत्युत्तर जब तुम बरसों तब मैं तरतूं जब मैं तरतूं तब तुम बरसो। हे धाराधर! यह भार तुम्हीं पर भारी है ऊपर बिजली की धारी है क्या मेरी ही लाचारी है? कुछ रिक्त भरा हो जाऊं मैं कुछ भार तुम्हारा जाये उतर जब तुम बरसो तब मैं तरतूं जब मैं तरतूं तब तुम बरसों।
हे धाराधर! एक अपूर्व घटना घट सकती है। कभी-कभी क्षण भर को घटती भी है; कभी किसी को घटती भी है-जब अचानक संवाद फलित होता है; मेरा पदय तुम्हें भर लेता है; मेरी आंखें तुम्हारी आंख से मिल जाती हैं, क्षण भर को तुम रिक्त हो जाते हो, तुम्हारी गागर मेरी तरफ उन्मूख हो जाती है। तो रस बहता है। तो संगीत उतरता है। और सारा संगीत और सारा रस शून्य का है। क्योंकि धर्म की सारी चेष्टा यही है कि तुम किसी भांति मिट जाओ ताकि परमात्मा तुम्हारे भीतर हो सके। तुम शून्य हो जाओ तो पूर्ण उतर सके।
पांचवां प्रश्न :
आनंद के अनुभव के लिए व्यक्ति का होना अनिवार्य-सा लगता है। लेकिन अगर सब तरफ मेरा ही विस्तार है तो फिर आनंद को अनुभव कौन करेगा? जीवन आनंदित हो सके, इसके लिए जैसे संन्यास अनिवार्य है वैसे ही आनंद के अनुभव के लिए व्यक्ति अनिवार्य नहीं है क्या?
व्यक्ति के कारण ही आनंद नहीं हो पा रहा है। आनंद की अपेक्षा के लिए व्यक्ति अनिवार्य है, आनंद के अनुभव के लिए बाधा है। आनंद की आकांक्षा के लिए व्यक्ति की जरूरत है, आनंद की वासना के लिए व्यक्ति की जरूरत है। लेकिन आनंद की अनुभूति के लिए व्यक्ति की कोई भी जरूरत नहीं है। जब आनंद होता है तो तुम थोड़े ही होते हो! तुम नहीं होते हो तभी आनंद होता है। और इसे