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निश्चित है !
दूसरा प्रश्न :
अलबर्ट आइंस्टीन ने जगत के विस्तार को जाना, ब्रह्म को जाना। क्या आप उन्हें ब्राह्मण का संबोधन देंगे?
जन्मजात
न्मजात ब्राह्मण से तो ज्यादा ही ब्राह्मण आइंस्टीन को कहना होगा। जो केवल पैदा हुआ है ब्राह्मण के घर में, इसलिए ब्राह्मण, उससे तो आइंस्टीन ज्यादा ही ब्राह्मण हैं। यज्ञोपवीत धारण करके जो ब्राह्मण हो गया है उससे तो आइंस्टीन ज्यादा ही ब्राह्मण हैं।
मरने के दो दिन पहले आइंस्टीन से किसी ने पूछा : 'दुबारा अगर पैदा हों तो क्या होना चाहेंगे? फिर वैज्ञानिक बनना चाहेंगे?' आइंस्टीन ने आंख खोली और कहा. 'नहीं-नहीं, भूल कर भी नहीं । जो भूल एक बार हो गई, हो गई; दुबारा मैं कुछ भी विशिष्ट न बनना चाहूंगा। प्लंबर बन जाऊंगा, कोई छोटा-मोटा काम, विशिष्ट होना अब नहीं | देख लिया, कुछ पाया नहीं । अब तो साधारण होना चाहूंगा।
यही तो ब्राह्मण का भाव है - यह विनम्रता ! फिर भी उनको मैं पूरा ब्राह्मण नहीं कह सकता, क्योंकि ब्रह्मांड तो उन्होंने जाना, वह जो बाहर था वह तो जाना; लेकिन जो भीतर था उसको नहीं जाना। फिर भी ब्राह्मणों से बेहतर, क्योंकि यह कहा कि जो भीतर है उसका मुझे कुछ पता नहीं। जिन्होंने शास्त्र पढ़ लिया है और शास्त्र से रट लिया है, उस रटन को जो अपना शान दावा करते हैं उनसे तो ज्यादा ब्राह्मणत्व आइंस्टीन में है - कम से कम कहा तो कि मुझे भीतर का कुछ भी पता नहीं ! भीतर मैं कोरा का कोरा, खाली का खाली हूं! इस जगत की बहुत-सी पहेलियां मैंने सुलझा लीं, लेकिन मेरे अपने अंतस की पहेलियां उलझी रह गई हैं।
उपनिषद कहते हैं : जो कहे मैं जानता हूं जानना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता, रुक जाना, शायद जानता हो ।
आइंस्टीन कहता है : मुझे कुछ पता नहीं भीतर का। बाहर के ज्ञान ने यह भ्रांति कभी पैदा ही भीतर का जान लिया है। बाहर की प्रतिष्ठा ने किसी तरह का भ्रम न पैदा होने दिया । बाहर की प्रतिष्ठा बड़ी थी। मनुष्य जाति के इतिहास में दो-चार लोग मुश्किल से इतने प्रतिष्ठित हुए हैं जैसा आइंस्टीन प्रतिष्ठित था। लेकिन फिर भी इससे कोई अस्मिता अहंकार खड़ा न हुआ। इससे मैं- भाव पैदा न हुआ। तो ब्राह्मण से तो ज्यादा ब्राह्मण हैं। लेकिन जो जाना वह बाहर का था। ब्रह्मांड का विस्तार जाना । पदार्थ का विस्तार जाना । दूर-दूर चांद-तारों की खोज की। लेकिन स्वयं के संबंध में कोई गहरा अनुभव न हुआ । स्वयं के संबंध में कोई यात्रा ही न हुई ।