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________________ भी होती। लेकिन वे फिर भी.......| मैं एक बार गांव गया था। विश्वविदयालय में पढ़ता था, लौटा था। उनको मैंने देखा तो मैंने उनको कहा कि अब तुम्हारा करना सब खतम हो गया, अब तुम्हारे पैर भी जाते रहे, अब चलना-उठना । नहीं होता, अब कोई जरूरत भी नहीं है, तुम्हारे बेटे अच्छी तरह कर भी रहे हैं, अब तुम्हें कुछ अड़चन भी नहीं है, अब तुम शांत क्यों नहीं बैठ जाते? । वे बोले, शांत तो मैं बैठना चाहता हूं। तो मैंने कहा : अब और क्या बाकी है? अब तुम शांत बैठ ही जाओ। तुम मेरी मानो मैंने उनसे कहा-चौबीस घंटे आज तुम दूकान पर मत जाओ। तुम्हारी वहां कोई जरूरत भी नहीं है। सच तो यह है कि तुम्हारे बेटे परेशान होते हैं तुम्हारी वजह से। काम में बाधा पड़ती है। जमाना बदल गया है। जब तुम दूकान चलाते थे, वह और दुनिया थी; अब दूकान किसी और ढंग से चल रही है। वे पुराने ढंग के आदमी थे। दस रुपये की चीज बीस रुपये में बताएंगे। फिर खींचतान होगी, फिर ग्राहक मांगेगा, फिर वे समझायेगे-बुझायेगे, फिर चल-फिर कर वह दस पर तय होने वाला है। लेकिन आधा घंटा खराब करेंगे, घंटा भर खराब करेंगे। अब दूकान की हालत बदल गई थी। अब दस की चीज है तो दस की बता दी, अब बात तय हो गई। उनको यह बिलकुल जंचता ही नहीं। वे कहते. 'यह भी कोई मजा रहा! अरे चार बात होती हैं, ग्राहक कहता कुछ, कुछ तुम कहते; कुछ जद्दोजहद होती, बुद्धि की टक्कर होती। और वे कहते, 'बिगड़ता क्या है? दस से कम में तो देना नहीं है, तो कर लेने दो उसको दौड़-धूप। उसको भी मजा आ जाता है। वह भी सोचता, खूब ठगा! कोई अपन तो ठगे जाते नहीं।' वह उनका पुराना दिमाग था, वे वैसे ही चलते थे। वे दूकान पर पहुंच जाते तो वे गड़बड़ करते। मैंने उनसे कहा कि तुमसे सिर्फ गड़बड़ होती है। और फिर अब, कब मौत करीब आती है.. ...अब तुम ऐसा करो, कर्तापन छोड़ दो, साक्षी हो जाओ। मेरी वे सदा सुनते थे कि कुछ कहूंगा तो शायद पते की हो। तो उन्होंने कहा अच्छा आज चौबीस घंटे प्रयोग करके देखता हूं। अगर मुझे शांति मिली तो ठीक नहीं मिली तो फिर मैं नहीं झंझट में पडूंगा। मुझे जैसा करना है करने दो, कम से कम व्यस्त तो रहता हूं। वे चौबीस घंटे अपने बिस्तर पर पड़े रहे। दूसरे दिन सुबह जब मैं गया, मैंने ऐसा उनका चेहरा, ऐसा सुंदर भाव कभी देखा ही न था। वे कहने लगे. हद हो गई! मैंने इस पर कभी ध्यान ही न दिया। पैर भी टूट गए, फिर भी मैं दौड़ा जा रहा, मन दौड़ा जा रहा। अब कुछ करने को भी मुझे नहीं बचा, सब ठीक चल रहा है मेरे बिना, और भी अच्छा चल रहा है; फिर भी मैं पहुंच जाता हूं सरक कर। परमात्मा ने मौका दिया कि पैर भी तोड़ दिए, फिर भी अकल मुझे नहीं आती। तुमने ठीक किया। ये चौबीस घंटे! पहले तो चार-छ: घंटे बड़ी बेचैनी में गुजरे, कई बार उठ-उठ आया; फिर याद आ गई, कम से कम चौबीस घंटे में क्या बिगड़ता है! फिर लेट गया। कोई दस-बारह घंटे के बाद कुछ-कुछ क्षण सुख के मालूम होने लगे। अब कुछ करने को नहीं बचा। सांझ होते-होते जब सूरज ढलता था और मैंने खिड़की से सूरज को ढलते देखा, तब कुछ मेरे भीतर भी ढल गया। कुछ हुआ है रात बहुत
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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