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गये कभी कोई घड़ा मजबूत हुआ कभी कोई घड़ा वस्तुत: घड़ा हुआ| कच्चे घड़े में पानी भर सकोगे? देखने में लगेगा घड़े जैसा, रखे रहो संभाल कर तो एक बात; पानी भरने के काम न आएगा। और
| पडेगी और सरज तपेगा तो जल को शीतल करने के काम भी न आएगा| पानी भरने गए तो पानी में ही घुल जाएगा।
तो तुम्हारे तथाकथित संन्यासी कच्चे घड़े हैं, भगोड़े हैं! मेरे देखे तो संन्यास संसार की आग में ही निर्मित होता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: आपने यह क्या किया? यह कैसा संन्यास कि लोग अपने घरों में हैं, पत्नी-बच्चे हैं, दूकान कर रहे हैं और आप उनको संन्यासी कहते हैं! उनका कहना ठीक है, क्योंकि सदियों से उन्होंने जिसे संन्यास समझा था, स्वभावत: उनके संन्यास की वही धारणा बन गयी। वैसी धारणा सार्थक सिद्ध नहीं हुई लाखों संन्यासी रहे, लेकिन फूल कहां खिले धर्म के? संन्यास मैंने तुम्हें दिया है- भागने को नहीं, जागने को। इसलिए जहां कठिनाई हो वहा तुम पैर जमा कर खड़े हो जाना। जान लेना कि यहां दर्पण है। यहां से तो तभी हटेंगे जब दर्पण गवाही दे देगा कि ही ठीक, सुंदर हो। जहां आग हो वहा से तो हटना मत। यहां से तो तभी हटेंगे जब आग भी कह दे कि भाई, अब और क्या पकायें, तुम पक गये। अब नाहक मुझे और न परेशान करो, अब जाओ। हटना तभी जब परिपक्वता हो। और तब हटने की भी कोई जरूरत नहीं है। भीतर है कुछ सम्हालना। यह बाहर की बात नहीं है।
स्वभावत: पुराना संन्यास जीवन-विरोधी था। उसमें निषेध है, निराशा है, अवसाद है। पुराना संन्यास दुखवाद है। मैं तुम्हें जो मंत्र दे रहा हूं वह जीवन को सौभाग्य मानने का है जीवन को प्रभु का प्रसाद मानने का है। तुम गाओ। संन्यास गुनगुनाता हुआ हो|
दुख से स्वर टूटता है छंद सधता नहीं धीरज छूटता है। गा! या कि सुख से ही बोलती बंद है रोम सिहरे हैं मन निस्पंद है फिर भी गा, फिर भी गा! मरता है जिसका पता नहीं, उससे डरता है?
गा!
जीता है आसपास सब कुछ इतना भरा-पूरा है