________________
दूसरे जौहरी के पास चला जा। हमारे पास बहुत से हीरे-जवाहरात तिजोरी में रखे हैं, वह उनको बिकवा देगा तो हमारे लिए पर्याप्त हैं।
वह जौहरी बोला. मैं खुद आता हूं। वह आया। उसने तिजोरी खोली एक नजर डाली। उसने कहा, तिजोरी बंद रखो, अभी बाजार- भाव ठीक नहीं। जैसे ही बाजार- भाव ठीक होंगे, बेच देंगे। और तब तक कृपा करके बेटे को मेरे पास भेज दो ताकि वह थोड़ा जौहरी का काम सीखने लगे।
___ वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, बार-बार स्त्री ने पुछवाया कि बाजार-भाव कब ठीक होंगे। उसने कहा, जरा ठहरो। तीन वर्ष बीत जाने पर उसने कहा कि ठीक, अब मैं आता हूं, बाजार- भाव ठीक हैं। तीन वर्ष में उसने बेटे को तैयार कर दिया, परख आ गई बेटे को। वे दोनों आए तिजोरी खोली। बेटे ने अंदर झांक कर देखा। हंसा। उठा कर पोटली को बाहर कचरे घर में फेंक आया। मां चिल्लाने लगी कि पागल, यह क्या कर रहा है त्र: तेरा होश तो नहीं खो गया? ।
उसने कहा कि होश नहीं, अब मैं समझता हूं कि मेरे पिता के मित्र ने क्या किया। अगर उस दिन वे इनको कहते कि ये कंकड़-पत्थर हैं तो हम भरोसा नहीं कर सकते थे। हम सोचते कि शायद यह आदमी धोखा दे रहा है। अब तो मैं खुद ही जानता हूं कि ये कंकड़-पत्थर हैं। इन तीन साल के अनुभव ने मुझे सिखा दिया कि हीरा क्या है। ये हीरे नहीं हैं। हम धोखे में पड़े थे।
यह सम्यक त्याग हुआ बोधपूर्वक हुआ।
जब तक तुम त्याग किसी चीज को पाने के लिए करते हो, वह त्याग नहीं, सौदा है, सम्यक त्याग नहीं। सम्यक त्याग तभी है जब किसी चीज की व्यर्थता दिखाई पड़ गई। अब तुम किसी के लिए थोड़े ही छोड़ते हो। सुबह तुम घर का कचरा झाड़-बुहार कर कचरे-घर में फेंक आते हो तो अखबार में खबर थोड़े ही करवाते हो कि आज फिर कचरे का त्याग कर दिया! वह सम्यक त्याग है। जिस
कचरे की तरह चीजें तम छोड देते हो उस दिन सम्यक त्याग, बोधपूर्वक, जान कर कि ऐसा है ही नहीं...।
एक आदमी है जो मानता है, मैं शरीर हूं। और एक दूसरा आदमी है जो रोज सुबह बैठ कर मंत्र पढ़ता है कि मैं शरीर नहीं हूं मैं आत्मा हूं। इन दोनों में भेद नहीं है। यह दोहराना कि मैं शरीर नहीं हूं इसी बात का प्रमाण है कि तुम्हें अब भी एहसास हो रहा है कि तुम शरीर हो। जिस आदमी को समझ में आ गया कि मैं शरीर नहीं हूं, बात खत्म हो गई। अब दोहराना क्या है? दोहराने से कहीं झूठ को सत्य थोड़े ही बनाया जा सकता है। ही, झूठ सत्य जैसा लग सकता है, लेकिन सत्य कभी बनेगा नहीं। यह वह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं ऐसे विभाग को छोड़ दे।
और छोड़ने में खयाल रखना, सम्यक त्याग हो, संत्यज, बोधपूर्वक छोड़ना। किसी की मान कर मत छोड़ देना। खुद ही पारखी बनना, जौहरी बनना, तभी छोड़ना। खुद के बोध से जो छूटता है, बस वही छूटता है; शेष सब छूटता नहीं, किसी नये द्वार से, किसी पीछे के द्वार से वापस लौट आता है। और ऐसे सब विभाग को.. विभागमिति संत्यज!
मन की एक व्यवस्था है कि वह हर चीज में विभाग करता है। देखते हैं, पश्चिम में आज से