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जो बच गये, उन्हीं के कारण मुझे निन्यानबे प्रतिशत से भी बोलना पड़ा था। उन एक को मैंने चुन लिया है।
अब, अब यहां भीड़ से बात नहीं हो रही। अब मैं तुम्हारी तरफ बहुत ध्यान दे कर नहीं बोलता हूं। अब इसकी फिक्र नहीं करता हूं कि तुम्हें रुको। नहीं रुचेगा; तुम्हें जंचेगा, नहीं जंचेगा। अब तुम पर ध्यान रख कर नहीं बोलता। अब तो जो मुझे बोलना है, उस पर ज्यादा ध्यान है।
और मैं धीरे-धीरे चाहूंगा जिन लोगों को रुचिकर न लगता हो, ऊब आती हो-वे हटें, वे विदा हो जायें। क्योंकि मैं तो धीरे- धीरे और गहरा होता जाऊंगा। जल्दी ही ऐसी घड़ी आयेगी, यहां बहुत थोड़े –से पक्षी रह जायेंगे। और जब वे थोड़े से पक्षी रह जायेंगे, तो मुझे जो ठीक-ठीक कहना है, वही उनसे कह सकूँगा।
देखा, प्राइमरी स्कूल में तो हजारों, लाखों विद्यार्थी भरती होते हैं, मिडल स्कूल में छंट जाते हैं, हाई स्कूल में और छंट जाते हैं, कालेज में आ कर और छंट जाते हैं; विश्वविद्यालय में और छंट जाते हैं -छंटते जाते हैं। आखिर में तो बहुत थोड़े-से लोग रह जाते हैं।
मेरे बोलने में यह सब सीढ़ियां पार हुई हैं। इसमें कई तरह की झंझटें भी हो गयीं। कुछ प्राइमरी स्कूल के विद्यार्थी भी अटके रह गये। लगाव बन गया उनका मुझसे; रुक गये, जा न सके। कुछ मिडल स्कूल के विद्यार्थी भी रह गये उनका लगाव बन गया, वे न जा सके। अब उनकी बड़ी अड़चन है। अब उनकी बड़ी फांसी लगी है। अब वे जा नहीं सकते, क्योंकि मुझसे लगाव बन गया है। और अब उनकी समझ में भी नहीं आता कि क्या हो रहा है। यह क्या कहा जा रहा है? यह उनसे बहुत पार पड़ रहा है।
जिसको भी ऊब आती हो-या तो अपने को बदलो या मुझे छोड़ो। दो ही उपाय हैं। मैं बदलने को नहीं हूं। अब मैं कुछ ऐसी बात न कहूंगा जिससे तुम्हारी वह ऊब कम हो। सच तो यह है जो आखिर में बच जायेंगे उनके लिए मैं इस तरह से बोलूंगा कि उसमें ऊब ही ऊब होगी।
तुम शायद जानते न होओ, लेकिन ऊब ध्यान का एक प्रयोग है। बचकानी आदत है कि सदा नया खिलौना चाहिए; नयी चीज चाहिए; नयी पत्नी चाहिए; नया मकान चाहिए। बचकानी आदत है। यह बचपना है, प्रौढ़ता नहीं है।
सदियों से सदगुरुओं ने प्रयोग किया है ऊब का। झेन आश्रम में जापान में सारी व्यवस्था बोरडम की है, ऊब की है। तीन बजे रात उठ आना पड़ेगा, नियम से, घड़ी के काटे की तरह। स्नान करना होगा। बंधे हुए मिनिट मिले हुए हैं। चाय मिल जायेगी वही चाय जो तुम बीस वर्ष से पी रहे हो, उसमें रत्ती भर फर्क नहीं होगा। फिर ध्यान के लिए बैठ जाना है -वही ध्यान जो तुम वर्षो से कर रहे हो, वही आसन। साधुओं के सिर घोंट देते हैं ताकि उनके चेहरों में ज्यादा भेद न रह जाये। घुटे सिर करीब-करीब एक-से मालूम होने लगते हैं-खयाल किया तुमने? अधिकतर चेहरे का फर्क बालों से है। सिर घोंट डालो सबके, तुम्हें अपने मित्र भी पहचानने मुश्किल हो जायेंगे। जैसे मिलिट्री में चले जाओ तो एक-सी वर्दी-ऐसी एक-सी वर्दी साधुओं की।