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भागेगा कहां? नहीं, माया में कुछ बल है, कोई सत्य है, कोई यथार्थ है। माया से तुम घबडाए हुए हो। भय से भाग रहे हो।
___ मैंने संन्यास को नया आयाम दिया है- भागो मत, जागो। मेरे संन्यास का सूत्र है : भागो मत, जागो। जहां हो, जैसे हो, वहीं खड़े हो जाओ पैर जमा कर। और असली सवाल बाहर से, बाहर की वस्तुओं से, पत्नी-बच्चों से, मकान-दूकान से नहीं है, असली सवाल तुम्हारे भीतर मन पर तुम्हारी जो जकड़ है, उससे है। उस जकड़ को छोड़ दो। जहां हो वहीं रहो। और तुम पाओगे एक अपूर्व मुक्ति तुम्हारे जीवन में उतरनी शुरू हो गई। अब तुम्हें कुछ बांधता नहीं।
जागरण मुक्ति है। साक्षी- भाव कहो, जागरण कहो, ध्यान कहो-जो तुम्हें नाम प्रीतिकर हो, कहो। लेकिन भागना मत। क्योंकि भागने का तो अर्थ ही यह हो गया कि तुम डर गए।
भीरु भगवान को कभी नहीं उपलब्ध होता। भगवान ने यह जीवन ही तुम्हें दिया है ताकि इससे गुजरो। यह जीवन तुम्हें किसने दिया है? इस जीवन में तुम्हें किसने भेजा है? जिसने भेजा है, प्रयोजन होगा। तुम्हारे महात्मा जरूर गलत होंगे, कहते हैं : भागो इससे! परमात्मा तो जीवन को बसाए चला जाता है और महात्मा कहते हैं: भागो! महात्मा परमात्मा के विपरीत मालूम पड़ते हैं।
यह तो ऐसा हुआ कि मां-बाप तो भेजते हैं बच्चे को स्कूल में, वहा कोई बैठे हैं सौ टंच सत्यानाशी, वे कहते हैं: भागो, स्कूल में कुछ सार नहीं है! पढ़ने -लिखने में क्या धरा है?
परमात्मा भेजता है इस जगत में जगत एक विदयापीठ है। यहां बहुत कुछ सीखने को है। यहां झूठ और सच की परख सीखने को है। यहां सार और असार का भेद सीखने को है। यहां सीमा और असीम का शिक्षण लेना है। यहां पदार्थ और चैतन्य की परिभाषा समझनी है। निश्चित ही भागने से यह न होगा, यह जागने से होगा।
और जागने के लिए हिमालय से कुछ प्रयोजन नहीं है। ठेठ बाजार में जाग सकते हो। सच तो यह है, बाजार में जितनी आसानी से जाग सकते हो, हिमालय पर न जाग सकोगे। बाजार का शोरगुल सोने ही कहां देता है! चारों तरफ से उपद्रव है। नींद संभव कहां है! हिमालय की गुफा में बैठ कर सोओगे नहीं तो करोगे क्या? तंद्रा पकड़ेगी, सपने पकड़ेंगे। और यहां जीवन के यथार्थ में प्रतिक्षण तुम्हारी छवि बनती है, जो तुम्हें बताती है, तुम कौन हो।
____ मैंने सुना है, एक स्त्री बड़ी कुरूप थी। वह दर्पण के पास न जाती थी। क्योंकि वह कहती थी: दर्पण मेरे दुश्मन हैं। दर्पण मेरे साथ अत्याचार कर रहे हैं। मैं तो सुंदर हूं दर्पण मुझे कुरूप बतलाते हैं। कोई उसके पास दर्पण ले आए तो दर्पण तोड़ देती थी।
तुम्हारे जो संन्यासी हैं, वे ऐसे ही दर्पण तोड़ रहे हैं। पत्नी से भाग जाओगे, क्योंकि पत्नी के पास रहने से कलह होती थी। कलह होती थी, इसका अर्थ ही इतना है कि तुम्हारे भीतर कलह अभी मौजूद है। पत्नी तो दर्पण थी, तुम्हारा चेहरा बनता था। तुम सोचते हो पत्नी कलह करवा रही है तो तुम गलती में हो। कोई कैसे कलह करवा सकेगा? पत्नी तो सिर्फ मौका है, जहां तुम्हारा चेहरा दिखाई पड़ता है। वह चेहरा कुरूप लगता है, तुम सोचते हो भाग जाओ, पत्नी छोड़ो, बच्चे छोड़ो-यह सब