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________________ श्रदया का क्षितिज: साक्षी का सूरज-प्रवचन-बारहवां दिनांक 22 नवंबर, 1976; पहला प्रश्न : श्रद्धा और साक्षित्व में कोई आंतरिक संबंध है क्या? साक्षित्व तो आत्मा का स्वभाव है, क्या श्रद्धा भी? और क्या एक को उपलब्ध होने के लिए दूसरे का सहयोग जरूरी है? का अर्थ है मन का गिर जाना। मन के बिना गिरे साक्षी न बन सकोगे। श्रद्धा का अर्थ है संदेह का गिर जाना। संदेह गिरा तो विचार के चलने का कोई उपाय न रहा। विचार चलता तभी तक है जब तक संदेह है। संदेह प्राण है विचार की प्रक्रिया का। लोग विचार को तो हटाना चाहते हैं, संदेह को नहीं। तो वे ऐसे ही लोग हैं जो एक हाथ से तो पानी डालते रहते हैं वृक्ष पर और दूसरे हाथ से वृक्ष की शाखाओं को उखाड़ते रहते हैं, पत्तों को तोड़ते रहते हैं। वे स्व-विरोधाभासी क्रिया में संलग्न हैं। जहां संदेह है वहां विचार है। संदेह विचार को उठाता है। संदेह भीतर के जगत में तरंगें उठाता है। इसलिए तो विज्ञान संदेह को आधार मानता है, क्योंकि विचार के बिना खोज कैसे होगी? तो विज्ञान का आधार है संदेह। संदेह करो, जितना कर सको उतना संदेह करो, ताकि तीव्र विचारणा का जन्म हो। उसी विचारणा से खोज हो। धर्म कहता है. श्रद्धा करो। श्रद्धा का अर्थ है-संदेह नहीं। संदेह गया कि विचार अपने से ही शांत होने लगते हैं। संदेह के बिना विचार करने को कुछ बचता ही नहीं। प्रश्न ही नहीं बचता तो विचार कैसे बचेगा? जो लोग सोचते हैं विचार को शांत कर लें और श्रद्धा करने को राजी नहीं, वे कभी सफल न होंगे। वे जड़ों को तो बचाये रखना चाहते हैं, पत्तों को तोड़ना चाहते हैं। जड़ें नये पत्ते भेज देंगी। जड़ें यही काम कर रही हैं-नये पत्तों को जन्माने का काम कर रही हैं। जड़ें तो गर्भ हैं, जहां से नये पत्तों का आगमन होता रहेगा। श्रद्धा का अर्थ है. मेरा कोई प्रश्न नहीं। और प्रश्न नहीं तो विचार की तरंग नहीं उठती। जैसे झील के किनारे तुम बैठे, एक पत्थर उठा कर शांत झील में फेंक दो। फेंकते तो एक पत्थर हो, लेकिन अनंत लहरें उठ आती हैं, लहर पर लहर उठती चली जाती है। एक संदेह अनंत विचारों का जन्मदाता हो जाता है। प्रश्न उठा कि यात्रा शुरू हुई।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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