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________________ फिर सोच क्या! जब कुछ होता ही नहीं अंतर के जगत में, कुछ कभी हुआ ही नहीं जैसा है वैसा ही है सब वहां; अंतस्तम पर, आखिरी केंद्र पर न कोई गति है, न कोई खोना, न कोई बढ़ना, न कुछ होना... I आकाश जैसा है-कभी बादल घिरते, वर्षा होती; फिर बादल चले जाते, कभी खुला आकाश होता, – कभी मेघाच्छादित होता। रात आती, अंधेरा हो जाता; दिन आता, प्रकाश फैल जाता। लेकिन आकाश वैसा का वैसा है! यह आकाश की दृष्टि है। इसे तुम समय की दृष्टि से मत मेल बिठाना। अन्यथा मुश्किल पड़ेगी। समय की दृष्टि कहती है. तुमने बुरे कर्म किए उनको ठीक करो, पाप किये उनको सुधारो; तुमने चोरी की, दान करो, तुमने किसी को दुख दिया, सेवा करो। समय की दृष्टि कहती है : कर्म को बदलो । आकाश की दृष्टि कहती है : साक्षी को पहचानो । कर्म का कुछ लेना-देना नहीं; कर्म तो स्वन्नवत है। 'देह चाहे कल्प के अंत तक रहे, चाहे वह अभी चली जाये, तुम चैतन्यरूप वाले की कहा वृद्धि है, कहां नाश है!' क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः । तुम तो चैतन्यमात्र हो। तुम्हारी कोई वृद्धि नहीं, कोई हास नहीं ! 'तुम अनंत महासमुद्र में विश्वरूप तरंग अपने स्वभाव से उदय और अस्त को प्राप्त होती है परंतु तेरी न वृद्धि है और न नाश है।' जो हो रहा है, वह प्रकृति के स्वभाव से हो रहा है। भूख लगती, तृप्ति होती, जवानी आती, वासना जगती; बुढ़ापा आता, वासना तिरोहित हो जाती - न तो तुम्हारी वासना है और न तुम्हारा ब्रह्मचर्य है। यह आकाश की दृष्टि है। कभी तुम चोर बनते, कभी साधु बन जाते। यह सब प्रकृति से हो रहा है। इसमें कुछ करने जैसा नहीं है, कुछ छोड़ने जैसा नहीं है। कुछ चुनाव नहीं करना है। कृष्णमूर्ति जिसे च्चॉइसलेस अवेयरनेस कहते हैं। चुनाव - रहित। निर्विकल्प बोधमात्र । त्वम्पनंतमहाम्भोधौ विश्ववीचि स्वभावतः । 'इस संसार - सागर में जो लहरें उठ रही हैं, वह संसार का स्वभाव है।' उदेतु वास्तुमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षति । 'न तो तेरी क्षति है न तेरी वृद्धि है । ' यह अपने से हो रहा है, इसे होने दे। यह नाच चल रहा है, इसे चलने दे । तू देखता रहा । 'हे तात, तू चैतन्यरूप है। तेरा यह जगत तुझसे भिन्न नहीं है। इसलिए हेय और उपादेय की कल्पना किसकी और क्यों कर और कहां हो सकती है?' तात चिन्मात्र रूपोउसि न ते भिन्नमिद जगत् । अथः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेय कल्पना ।। 'तू चैतन्यरूप है। तेरा यह जगत तुझसे भिन्न नहीं है। और यहां हम जो भिन्नतायें देख रहे हैं, वे सब भिन्नतायें ऊपर-ऊपर हैं, भीतर हम अभिन्न
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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