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'हे प्रिय, हे सौम्य! श्रद्धा की घड़ी आ गई, श्रद्धा कर। और मोह मत कर।'
मोह होता है अतीत का और श्रद्धा होती है भविष्य की। मोह होता है उससे जिसके साथ हम रहे हैं। श्रद्धा होती है उसकी जिसके साथ हम कभी नहीं रहे। मोह तो कायर को भी होता है; श्रद्धा केवल साहसी को होती है। मोह तो अज्ञानी को भी होता है, श्रद्धा तो सिर्फ ज्ञान के खोजी को होती है।
तुम कहते हो, मैं हिंदू हूं-यह तुम्हारा मोह है या तुम्हारी श्रद्धा? फर्क करना। समझने की कोशिश करना। अगर तुम हिंदू घर में पैदा न हुए होते बचपन से ही तुम्हें मुसलमान घर में रखा गया होता तो, तो तुम मुसलमान होते। और मुसलमान होने में तुम्हारा इतना ही मोह होता जितना अभी हिंदू होने में है। अगर हिंदू-मुस्लिम दंगा होता तो तुम मुसलमान की तरफ से लड़ते हिंदू की तरफ से नहीं। अभी तुम हिंदू की तरफ से लड़ोगे, लेकिन क्या तुमको पक्का है कि तुम हिंदू घर में पैदा हुए थे? मुसलमान घर में पैदा हुए और हिंदू घर में रख दिए गये हो कौन जाने? यह विश्वास है।
मोह विश्वास है। मोह के कोई आधार नहीं हैं। मोह का तो सिर्फ संस्कार है। बार-बार दोहराया गया तो मोह बन गया। तुम्हें पक्का पता नहीं है। इस मोह में आदत तो है, लेकिन इस मोह में कोई बोध नहीं है। श्रद्धा बड़ी बोधपूर्वक होती है। श्रद्धा का अर्थ है. जो हो चुका हो चुका, जो जा चुका जा चुका। मैं तैयार हूं उसके लिए जो होना चाहिए। संभव के लिए मेरे द्वार खुले हैं और मैं संभावना का सूत्र पकड़ कर बढूगा जहां ले जाये परमात्मा, जो दिखाये, जो कराये, खोना हो तो खो जाऊंगा! वह खोना भला श्रद्धा के साथ। मोह के साथ बने रहने में कुछ सार नहीं।'रह कर तो देख लिया मोह के साथ बहुत-क्या मिला? कभी हिसाब भी तो लगाओ! कितने विश्वासों से भरे हों-क्या मिला? बस विश्वास ऐसे हैं जैसे 'आग' शब्द जलाता नहीं। विश्वास ऐसे हैं जैसे ' अमृत' शब्द। अब 'अमृत' शब्द को लिखते रहो, घोंट-घोंट कर लिखते -रहो, पी जाओ घोंट-घोंट कर, तो भी कुछ अमृत को उपलब्ध नहीं हो जाओगे।
श्रद्धा उसकी तलाश है जो है। श्रद्धा सत्य की खोज है। श्रद्धा का विश्वास से दूर का भी नाता नहीं है। और विश्वासी अपने को समझ लेता है मैं श्रद्धालु हूं तो बड़ी भ्रांति में पड़ जाता है। विश्वास तो झूठा सिक्का है। यह तो कमजोर की आंकाक्षा है। श्रद्धा असली सिक्का है; हिम्मतवर की खोज है। हे सौम्य, हे प्रिय! श्रद्धा कर, श्रद्धा कर! इसमें मोह मत कर। तू ज्ञानरूप है, भगवान है, परमात्मा है, प्रकृति से परे है।'
डर मत, सीमा में उलझ मत। जो बीत गया उस सीमा को अपनी सीमा मत मान।
समझें। तुमने अब तक जाना तो अपने को मनुष्य है। मनुष्य भी पूरा कहां कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई जैन है -उसमें भी खंड हैं। फिर हिंदू भी पूरा कहां! उसमें भी कोई ब्राह्मण है, कोई शूद्र है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है। फिर ब्राह्मण भी पूरा कहां! कोई देशस्थ, कोई कोकणस्थ फिर ऐसा कटता जाता, कटता जाता। फिर उसमें भी स्त्री-पुरुष। फिर उसमें भी गरीब-अमीर। फिर उसमें
भी
सुंदर-कुरूप। फिर उसमें भी जवान-बूढ़ा। कितने खंड होते चले जाते हैं! आखिर में बचते हो तुम बड़े