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________________ में घटती है, तब आदमी सौम्य होता है। अभी आत्मा पूरी जाग नहीं गई है, बस जागने के करीब है। लगने तो लगा है कुछ-कुछ, स्वाद थोड़ा- थोड़ा आने लगा है, खबर मिलने लगी है अपने स्वभाव की; लेकिन अभी पूरा पर्दा नहीं उठा। एक झलक मिली, एक खिड़की खुली है, छलांग नहीं लगी। है सौम्य! हे प्रिय......।' और गुरु के लिए शिष्य तभी प्यारा होता है जब वह सौम्य हो जाता है, जब वह समाधि के करीब आने लगता है। यही तो गुरु की सारी चेष्टा है कि सोये को 'जगा दे; कि खोये को उसका स्मरण दिला दे; कि भटके को राह पर ला दे। और जब देखता है कि कोई आने लगा मंजिल के करीब. और जनक ने जैसी अभिव्यक्ति दी है, जैसे उत्तर दिए हैं अष्टावक्र को. किताब में तो सिर्फ उत्तर हैं। उत्तर से भी बहुत खबर मिलती है लेकिन अष्टावक्र के सामने तो जनक स्वयं मौजूद थे-आंख से, मख-मद्रा से, हावभाव से, उठने-बैठने से, हर चीज से खबर मिल रही होगी समता आ रही; समाधि करीब आ रही। जैसे. तुम किसी बगीचे के करीब जाते हो, अभी दूर से दिखाई नहीं पड़ता बगीचा, फिर भी हवायें ठंडी हो जाती हैं। हवाओं में थोड़ी फूलों की गंध आ जाती है। इत्र तैरने लगता है। तुम्हें अभी बगीचा दिखाई भी नहीं पड़ता, लेकिन तुम कह सकते हो कि ठीक दिशा में हो। ठंडक बढ़ती जाती है, शीतलता बढ़ती जाती है, गंध प्रखर और तीव्र होती जाती है। तुम जानते हो कि बगीचा ठीक करीब है और तुम ठीक दिशा में हो। ऐसी ही दशा होगी। मस्ती छाई जाती होगी, आंखों में खुमार आने लगा होगा। यह परमात्मा की शराब बूंद-बूंद गिरने लगी जनक के हृदय में। यह घड़ी आ गई जब गुरु शिष्य को प्रिय कहे। यह करीब आ गई घड़ी जब गुरु शिष्य को अपने पास बिठाने के योग्य मानेगा। यह घड़ी आने लगी करीब, जब गुरु और शिष्य में फर्क न रह जायेगा। प्रिय' उसका सूचक है। प्रिय' का मतलब होता है. अब मैं तुम्हें अपने हृदय के करीब लेता हूंअब मैं तुम्हें अपने समान स्वीकार करता हूं: अब तुम मेरे ही तुल्य हो गये, होने लगे; अब मुझमें और तुझमें कोई भेद नहीं। जल्दी ही कौन गुरु, कौन शिष्य-पता लगाना संभव न रह जायेगा। प्रेम जिससे भी तुम्हें होता है, तुम उसे अपने समान स्वीकार कर लेते हो। यही फर्क है। प्रेम की अनेक कोटियां हैं। बाप का अपने बेटे पर प्रेम होता है, उसे हम कहते हैं वात्सल्य; प्रेम नहीं कहते। वात्सल्य का अर्थ है. बाप बहुत ऊपर बेटा बहुत नीचे वहां से उंडेल रहा। बेटा पात्र की तरह है-बहुत नीचे रखा; बाप के प्रेम की धारा पड़ रही है। गुरु के प्रति प्रेम होता है उसे हम श्रद्धा कहते हैं, आदर कहते हैं, सम्मान कहते हैं, उसे भी हम प्रेम नहीं कहते हैं। क्योंकि गुरु ऊपर बैठा है। और हमारा प्रेम और श्रद्धा जैसे किसी ने धूप बाली हो और धूप का धुंआ चढ़ने लगे ऊपर की तरफ ऐसा ऊपर की यात्रा पर जा रहा है। लेकिन जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो तो प्रेम कहते हो। प्रेम का अर्थ होता है : तुम जिसके प्रेम में हो वह ठीक तुम्हारे ही साथ खड़ा है।। इसीलिए तो ऐसा अक्सर होता है। मेरे पास कोई पति आकर संन्यासी हो जाता है तो वह कहता
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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