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है, शुभ को लाना है। बुरे को मिटाना है, भले को लाना है। इसलिए जैन विचार बहुत नैतिक हो गया होना ही पड़ेगा। अंधेरे को काटना है, प्रकाश को लाना है तो योद्धा बनना होगा। इसलिए तो वर्द्धमान का नाम महावीर हो गया। वे योद्धा थे। उन्होंने जीता, विजय की। जैन' शब्द का अर्थ होता है : जिसने जीता। अगर भक्त से पूछो तो वह कहेगा, यह बात ही गलत; जीतने से कहीं परमात्मा मिलता है, हारने से मिलता है! हारो! उसके सामने समर्पित हो जाओ! छोड़ो संघर्ष! हारते ही मिल जाता है।
ये दो अलग भाषायें हैं। दोनों सही हैं, याद रखना। दोनों तरफ से लोग पहुंच गये हैं। तुम्हें जो रुच जाये, बस वही तुम्हारे लिए सही है। हालांकि यह मन में वृत्ति होती है कि जो एक धारणा को मानता है, दूसरे को गलत कहने की वृत्ति स्वाभाविक है। जो मानता है संकल्प से मिलेगा, वह कैसे मान सकता है कि समर्पण से मिल सकता है! अगर वह मान ले कि समर्पण से मिल सकता है तो फिर संकल्प की जरूरत क्या रही? और जो मानता है समर्पण से ही मिलता है, वह अगर मान ले कि संकल्प से भी मिल सकता है तो फिर समर्पण का क्या मूल्य रह गया? इसलिए दोनों एक दूसरे का खंडन करते रहेंगे, एक-दूसरे का विरोध करते रहेंगे।
तुम चकित होओगे यह बात जान कर. हिंदू और मुसलमान में उतना विरोध नहीं है, उनकी पद्धति तो एक ही है; जैन और हिंदू में बहुत विरोध है, उनकी पद्धति मौलिक रूप से भिन्न है। मुसलमान भी, ईसाई भी, हिंदू भी वे सब, अगर गौर से समझो, तो आकाश की धारणा को मान कर चलते हैं। थोडे-बहत भाषा के भेद होंगे लेकिन मौलिक अंतर नहीं है। लेकिन बुद्ध महावीर आकाश की भाषा को मान कर नहीं चलते, समय की भाषा को मान कर चलते हैं।
सारे जगत के धर्मों को श्रमण और ब्राह्मण में बांटा जा सकता है। और इस बात को मैं फिर से दोहरा दूं कि दोनों तरफ से लोग पहुंच गये हैं। इसलिए तुम इस चिंता में मत पड़ना कि दूसरा गलत है; तुम तो इतना ही देख लेना, -तुम्हारा किससे संबंध बैठ जाता है। तुम्हारे भीतर का 'स्व' किसके साथ छंदोबद्ध हो जाता है, बस इतना काफी है; इससे ज्यादा विचारणीय नहीं है।
हिंदू परंपरा की आत्यंतिक पराकाष्ठा पहुंची अद्धैत पर लेकिन महावीर अद्वैत पर नहीं जा सकते, क्योंकि अबैत का तो मतलब हो जायेगा, फिर पाने को कुछ नहीं बचता। दूसरा तो चाहिए ही। संघर्ष करने को भी कुछ नहीं बचता, अगर दूसरा न हो। हराने को भी कुछ नहीं बचता, अगर दूसरा न हो। योद्धा के लिए अकेले होने में क्या प्रयोजन रह जायेगा! लिए तलवार कमरे में नाच रहे, कूद रहे-युद्ध नहीं रह जायेगा, नाच हो जायेगा। योद्धा को तो दूसरा चाहिएं। जिसकी चुनौती में जूझ सके। तो महावीर कहते हैं. संसार अलग, परमात्मा अलग; और दोनों में संघर्ष है; चेतना और पदार्थ में संघर्ष है। इसलिए महावीर अद्वैतवादी नहीं हैं, दवैतवादी हैं। जीवन और चेतना एक लोक, पदार्थ, जड़ अलग दूसरा लोक। और दोनों में कभी कोई मिलना नहीं होता। दोनों भिन्न हैं। ____ महावीर की ये धारणायें तुम्हें अष्टावक्र को समझने में सहयोगी हो सकती हैं। उनकी पृष्ठभूमि में अष्टावक्र साफ हो सकेंगे।
अष्टावक्र की धारणा है अबैत की, एक ही है, आकाश जैसा! उसी का सब खेल है। वही एक