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है 'मैं' – 'तू' के कारण, फिर भी तुम मुक्त नहीं होते। इतना दुख पाते, इतने शूल छिदते, छाती छलनी हो जाती-फिर भी तुम मुक्त नहीं होते। और तुम्हें कोन मुक्त कर पाएगा? अगर पीड़ा तुम्हारी गुरु नहीं है तो और कोन तुम्हारा गुरु हो सकेगा?
संसार गुरु है। जो भी अनुभव हो रहा है उसका जरा हिसाब-किताब रखो। जहां-जहां दुख हो जरा गौर से देखना, पाओगे खड़े अपने 'मैं' को। जहां-जहां पीड़ा हो, वहीं तुम पाओगे खड़े अपने 'मैं' को। तो धीरे-धीरे कब तक सोए रहोगे? कभी तो जाग कर देखोगे कि यह शूल की तरह छिदा है अहंकार, यही मेरे प्राणों की पीड़ा है। जिस दिन कोई इस अहंकार को हटा कर रख देता.. और रखना तुम्हारे हाथ में है। सच तो यह है, यह कहना ठीक नहीं कि रखना तुम्हारे हाथ में है। तुम सम्हालो न तो यह अभी गिर जाए। तुम सहयोग न करो तो यह अभी विसर्जित हो जाए। यह तुम्हारे सहयोग से सम्हला है।
यह बड़े मजे की बात है, तुम अपने दुख को खुद ही सम्हाले खड़े हो। तुम अपने नर्क के निर्माता हो। इस 'मैं' - 'तू के जरा पार चलने की बात है। बस 'मैं' - 'तू के पार उठे, चाहे प्रेम से उठो चाहे ध्यान से, दोनों से 'मैं' - 'तू के पार उठना है।
मिट्टी में गड़ा हुआ मैं तुम्हारा मूल हूं तुम मेरे फूल हो जो आकाश में खिला है मिट्टी से जो रस मैं खींचता हूं वह फूल में लाली बन कर छाता है और तुम जो सौरभ बनाते हो यहां नीचे भी उसका सुवास उगता है अदेह की विभा देह में झलक मारती है, और देहक ज्योति अदेह की आरती उतारती है द्वैताद्वैत से परे मेरी यह विनम्र टेक है
प्रभु! मैं और तुम दोनों एक हैं। वह जो फूला खिला है ऊपर शिखर पर उसमें, और वह जो जड़ छिपी है गहरे अंधकार में भूमि के, उसमें भेद नहीं, दोनों एक हैं। बुद्ध में और तुममें अज्ञानी में और ज्ञानी में, असाधु और साधु में कोई मौलिक अंतर नहीं है, कोई आधारभूत अंतर नहीं है। होगा संत खिला हुआ फूल जैसा ऊपर शिखर पर आकाश में प्रगट, और होगा असाधु दूर अंधेरे में भूइम के दबा हुआ जड़ जैसा..
मिट्टी में गड़ा हुआ मैं तुम्हारा मूल हूं। तुम मेरे फूल हो जो आकाश में खिला है मिट्टी से जो रस मैं खींचता हूं वह फूल में लाली बन कर छाता है और तुम जो सौरभ बनाते हो