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की खदान मिल गई। अब तो एक दफा ले आया तो जन्म भर के लिए काफी था। फिर तो उसने जंगल आना ही बंद कर दिया।
फकीर एक दिन उसके घर पहुंचा पूछा : 'पागल, मैं तेरी राह देखता हूं अभी थोड़ा और आगे । उसने कहा. 'अब छोड़ो, अब तुम मुझे मत भरमाओ ।' उसने कहा : 'तू पिछले अनुभव से तो कुछ सीख। जितना आगे गया उतना मिला। थोड़ा और आगे ।' रात भर सो न सका। कई दफे सोचा : 'अब जाने में सार क्या है! और आगे हो भी क्या सकता है! सोना - आखिरी बात आ गई।' पर नींद भी न लगी; सोचा कि फकीर शायद कुछ कहता हो, शायद कुछ और आगे हो। तो और आगे गया। हीरों की खदान मिल गई। सोचा कि बुरा होता हाल मेरा अगर न आता ।
अब तो वह एक दफे ले आया तो जन्मों-जन्मों के लिए काफी था । फिर तो कई दिन दिखाई ही न पड़ता था वह। घर भी फकीर आता तो मिलता नहीं था। कभी होटल में, कभी सिनेमागृह में। वह कहाँ अब, उसका पता कहां चले! अब तो वह भागा-भागा था। फकीर उसको खोजता फिरे, उसका पता न चले। एक दफे मिल गया वेश्यालय के द्वार पर उसने कहा. ' अरे पागल, बस तू यहीं रुक जाएगा? अभी थोड़ा और आगे ।' उसने कहा. 'अब क्षमा करो, मैं मजे में हूं। अब मुझे और झंझट में न डालो।' पर फकीर ने कहा : 'एक बार और मान ले। रुक मत।'
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वह और आगे गया। अब तुम सोचो और आगे क्या मिला होगा? और आगे फकीर मिला, वह बैठा था ध्यान में। उस आदमी ने पूछा : 'अब यहां तो कुछ और दिखाई नहीं पड़ता ।' उसने कहा : 'यहां खदान भीतरी है । अब तू मेरे पास बैठ जा । अब जरा आख बंद कर । अब जरा शांत हो कर बैठ। अब यहां ध्यान की खदान है। अब यहां परमात्मा मिलेगा, पागल ! अब बाहर की चीज हो चुकी बहुत अब भीतर खोद ! '
जीवन में और आगे चलते जाना है, कहीं रुकना मत! धन के आगे ध्यान है। चार्वाक के आगे अष्टावक्र है। सुख के आगे आनंद है। पदार्थ के आगे परमात्मा है। विरोध मेरा किसी से भी नहीं है, इंकार किसी बात का नहीं। बस, एक बात ध्यान रहे कि तुम्हारे जीवन की सरिता बहती रहे, तुम कहीं अटको न, डबरे न बनो । डबरे बने कि सड़े। डबरे बने कि गंदे हुए। डबरे बने कि सागर तक पहुंचने का उपक्रम बंद हुआ, अभियान समाप्त हुआ, फिर तुम गए ।
बहते रहो! सागर तक चलना है। संसार से गुजरना है, परमात्मा तक पहुंचना है। और जिस दिन तुम पहुंचोगे उस दिन तुम चकित होओगे। उस दिन पीछे लौट कर देखोगे तो तुम पाओगे सब जगह परमात्मा ही छिपा था। जहां-जहां सुख की झलक मिली थी, वहा – वहां ध्यान की कोई न कोई किरण थी, इसीलिए मिली थी। यह मैं तुमसे अपनी साक्षी की तरह कहता हूं मैं इसका गवाह हूं । तुमने अगर कामवासना में कभी थोड़ी-सी सुख की झलक पाई थी तो वह झलक कामवासना की न थी, कामवासना के क्षण में कहीं ध्यान उतर आया था, जरा-सा सही। बड़ी दूर से एक गज आ गई थी, लेकिन वह थी ध्यान की। यह तो तुम आखिर में पाओगे। अगर कभी यश पा कर तुम्हें कुछ रस मिला था तो वह भी ध्यान की ही झलक थी। तुम्हें जहां भी सुख मिला था, वह परमानंद की ही कुछ