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है! तुम महान कार्य कर रहे हो संसार के हित के लिए। और लोग अपने ढंग से चले जा रहे हैं, कोई हार्न ही बजा रहा है।
तुम गलत दृष्टि से ध्यान करने बैठे हो। तुम्हारा ध्यान अहंकार की ही सजावट है। वास्तविक ध्यान तो जो हो रहा है हो रहा है, तुम शांत बैठे देख रहे हो। तुम्हारा कोई अस्वीकार- भाव नहीं है।
ध्यान एकाग्रता नहीं है। ध्यान सर्व-स्वीकार है। पक्षी गाएंगे, आवाज करेंगे, राह पर लोग चलेंगे कोई बात करेगा, बच्चे हसेंगे-सब होता रहेगा, तुम वहां शून्यवत बैठे रहोगे। सब तुममें से गुजरेगा भी-ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे कान बहरे हो गए हैं कि तुम्हें सुनाई नहीं पड़ेगा तुम्हें और भी अच्छी तरह सुनाई पड़ेगा। ऐसा पहले कभी नहीं पड़ा था, क्योंकि मन में हजार उलझनें थीं, तो कान सुन भी लेते थे, फिर भी मन तक नहीं पहुंचता था। अब बिना उलझन के बैठे तुम्हारी संवेदनशीलता बड़ी प्रगाढ़ हो जाएगी।
वसंत यानी मौसम और मिजाज के बीच समरसता।
ध्यान यानी तुम्हारे और समस्त के बीच समरसता। समरस हो गए। ठीक है जो है, बिलकुल ठीक है, स्वीकार है। कहीं कोई अस्वीकार नहीं, कहीं कोई विरोध नहीं। जो रहा है, शुभ हो रहा है। यही आस्तिकता है, यही ध्यान है। ऐसा ध्यान स्वभावत: एक नई ही अनुभूति में तुम्हें ले जाएगा। तूफान उठेंगे, तूफान रुक नहीं जाएंगे तुम्हारे ध्यान करने से। ध्यान करने से शरीर में बीमारियां आनी बंद नहीं हो जाएंगी। बीमारियां आएंगी, शरीर में कभी कांटा भी चुभेगा। रमण को कैंसर हो गया रामकृष्ण को भी. तो बड़े तूफान आए!
रामकृष्ण को कैंसर हो गया गले का, तो भोजन न कर सकते थे, पानी न पी सकते थे। तो विवेकानंद ने उन्हें कहा कि आपके हाथ में क्या नहीं! आप क्यों नहीं प्रभु से प्रार्थना करते कि इतना तो कम से कम कर, कि कम से कम भोजन और पानी तो जाने दे! हम पीड़ित होते हैं आपको तड़पते देख कर।
रामकृष्ण ने कहा कि अरे, यह तो मुझे खयाल ही न आया कि प्रभु से प्रार्थना करूं। जिसकी प्रार्थना पूरी हो गई, उसे कैसे खयाल आएगा कि प्रभु से इसके लिए प्रार्थना करूं!
विवेकानंद ने बहुत आग्रह किया तो उन्होंने आख बंद की और फिर हंसने लगे और कहा कि तू नहीं मानता तो मैंने कहा।.. मैं जानता हूं, कहा नहीं होगा, क्योंकि प्रार्थना करने वाला प्रार्थना कर ही नहीं सकता। सब प्रभु पर छोड़ दिया, अब उससे और क्या शिकायत कि ऐसा कर वैसा कर, कि गले में पानी जाने दे। यह भी कोई बात है? यह कोई कहने जैसी बात है? रामकृष्ण ने कही होगी? नहीं, लेकिन रामकृष्ण ने विवेकानंद के संतोष के लिए कहा कि मैंने कहा। तो विवेकानंद बड़ी उत्कुल्लता से बोले : 'क्या कहा परमात्मा ने?' तो उन्होंने कहा : 'परमात्मा ने कहा कि अरे पागल, अब इसी कंठ से पानी पीता रहेगा? और सब कंठों से पी! इसी कंठ से भोजन करता रहेगा? अब और कंठों से कर! यह शरीर तो जाने का क्षण आ गया।'
तो रामकृष्ण ने कहा. 'अब विवेकानंद, तुम्हारे कंठ से पानी पी लेंगे, तुम्हारे कंठ से भोजन