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ही कैवल्य रखा। कैवल्य का अर्थ है. जहां बिलकुल अकेलापन बचा, केवल चेतना बची; कोई और न बचा; कोई दूसरा न रहा। बुद्ध ने उस एकांत का नाम रखा है निर्वाण । न केवल दूसरा नहीं बचा; तुम भी बुझ • गए। निर्वाण का अर्थ होता है. बुझ गए जैसे दीया जलता हो, कोई फूंक मार दे और दीया बुझ जाए तो हम कहते हैं. दीए का निर्वाण हो गया। न केवल दूसरे चले गए, तुम भी चले गए। इतना एकांत कि तुम भी वहा नहीं हो! शून्य बचा। फिर भी बुद्ध परम आनंद में हैं, महावीर परम आनंद में हैं। तो परमात्मा की तो बात ही क्या कहनी!
इसलिए तो हमने बुद्ध और महावीर को परमात्मा कहा। असल में जिसने एकांत को आनंद जाना, उसी को हमने परमात्मा कहा है। वह परमात्मा का लक्षण है।
अकेले में सुखी होने का अर्थ है. अब दूसरे की जरूरत न रही। अब तुम पूर्ण हुए। जब तक दूसरे की जरूरत है तब तक पीड़ा है। इसलिए तो प्रेमी एक-दूसरे को क्षमा नहीं कर पाते । क्षमा करना संभव नहीं है। क्योंकि जब तक दूसरे की जरूरत है, दूसरे से बंधन है। और जिससे बंधन है, उस पर नाराजगी है। पति पत्नी पर नाराज है, पत्नी पति पर नाराज है। प्रेयसी प्रेमी पर नाराज है। नाराजगी का बड़ा गहरा कारण है। ऊपर-ऊपर मत खोजना कि यह पत्नी दुष्ट है, कि यह पतदुष्ट है, कि यह मित्र ठीक नहीं। नाराजगी का कारण बड़ा गहरा है। कारण यह है कि जिस पर हमारा सुख निर्भर होता है उसके हम गुलाम हो जाते हैं। गुलामी कोई चाहता नहीं। स्वतंत्रता चाही जाती है। गहरी से गहरी चाह स्वातंत्रय की है।
तो जिससे हम सुखी होते हैं. अगर तुम पत्नी के कारण सुखी हो तो तुम पत्नी पर नाराज रहोगे। भीतर - भीतर एक काटा खलता रहेगा कि सुख इसके हाथ में है, चाबी इसके हाथ में है-कभी खोले दरवाजा, कभी न खोले दरवाजा। तो इसके गुलाम हुए। गुलामी पीड़ा देती है।
मोक्ष हम उसी अवस्था को कहते हैं जब चाबी तुम्हारे हाथ में है। खोलने, बंद करने की भी जरूरत नहीं। खोले ही बैठे रहो, कोन बंद करेगा, किसलिए बंद करेगा! आनंद में डूबे रहो निशि - वासर ! परमात्मा ने किसी दुख, किसी पीड़ा, किसी अभाव के कारण संसार नहीं बनाया। फिर क्यों बनाया? सिर्फ पूरब ठीक-ठीक उत्तर दिया है। पूरब ने उत्तर दिया है. 'खेल-खेल में! लीलावश! उमंग में। जैसे छोटे बच्चे खेलते हैं, रेत का घर बनाते हैं, लड़ते -झगड़ते भी हैं. ।'
बुद्ध ' ने कहा है गुजरता था एक नदी के किनारे से, कुछ बच्चे खेलते थे, रेत के घर बनाते थे। उनमें बड़ा झगड़ा भी हो रहा था। क्योंकि कभी किसी बच्चे का घर किसी के धक्के से गिर जाता, किसी का पैर पड़ जाता, तो मार-पीट भी हो जाती । बुद्ध खड़े हो कर देखते रहे, क्योंकि उन्हें लगा : ऐसा ही तो यह संसार भी है। यहां लोग मिट्टी के घर बनाते हैं, गिर जाते हैं तो रोते हैं, तकलीफ, नाराज. अदालत - मुकदमा करते हैं। यही तो बच्चे कर रहे हैं, यही बड़े करते हैं। फिर सांझ हो गयी, सूरज ढलने लगा और किसी ने नदी के किनारे से आवाज दी कि बच्चों, अब घर जाओ, सांझ हो गयी। और सारे बच्चे भागे। अपने ही घरों पर, जिनकी रक्षा के लिए लड़े थे, खुद ही कूदे - फांदे, उनको मिटा कर सब खाली कर दिया और खूब हंसे, खूब प्रफुल्लित हुए और घर की तरफ लौट गए।